Finest Lyricist of Hindi Cinema-Shailendra
सादा ज़बान का गहरा शायर-शैलेंद्र
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पिता केसरी लाल की जन्मभूमि आरा थी इसलिए इस बच्चे ने अपने पिता और परिवार से लोक कथाओ और गीतों की जिस्म पर अपना मुलायम हाथ रखना शुरू कर दिया. रावलपिंडी की खुसूसी उर्दू ज़बान और मथुरा का आध्यात्मिक माहौल और विरासत में मिली भोजपुरी ज़बान की मिठास और सच्चाई, इस बालक के लहू में मिलती चली गयी।
देश आज़ाद होते ही अब नौजवान हो चूका ये बालक अब मुंबई के रेलवे गैराज में मामूली नौकरी करने लगता है और लोग इसे शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र के नाम से जानने लगती है।
दिन भर बदन पर पसीना उगाते शंकरदास केसरी लाल , शाम ढलते ही कागज़ पर अपनी तड़प, चाह, गुस्सा, तकलीफ , मोहब्बत, उड़ेलने लगते. सड़क पार इप्टा का दफ्तर, अक्सर उनके लिखे गीतों के उदगार की जगह बन जाता. उनके क्रांतिकारी विचार, जख़्मी हुए देश को जोड़ने की कोशिश करती हुई उनकी पंक्तियां, इप्टा के दफ्तर की दीवारों से टकराकर अब शहर में धीरे धीरे हलचल करने लगी थी. शंकर दास केसरी लाल शैलेंद्र के गीतों और नज़्मो की गूंज जब तेज हुई तो अक्सर उन्हें कवि सम्मेलन और मुशायरा में अपनी आवाज बुलंद करने के लिए बुलाए जाने लगा।
१९४७ की ऐसी ही एक शाम जब शंकर दस केसरी लाल , देश के हालात पर अपनी नज़्म 'जलता है पंजाब ' सुना रहे थे , उन्हें ख्वाबो ख्याल में भी नहीं पता था कि श्रोताओ में मशहूर अदाकार निर्देशक, राजकपूर भी थे. नज़्म ख़त्म होते ही राजकपूर के कदम ,इस नौजवान शायर की ओर बढे और राजकपूर ने अपनी फिल्म 'आग ' के लिए इस गीत को देने की इल्तेज़ा की. हाथ में ५०० रुपये जो उस दौर की खासी बड़ी रकम थी , और राजकपूर जैसा प्रसिद्ध नाम भी शंकरदास केसरी लाल की इस नज़्म को खरीद नहीं पाया. जिस्म पर हुनर, स्वाभिमान और अना का खूबसूरत लिबास पहने शंकर दास केसरी लाल लाल शैलेंद्र ने गुरबत में भी अपनी लफ्जों के साथ सूखी रोटी खाने का फैसला किया।
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कुछ महीने बाद शंकरदास की पत्नी के प्रसवकाल में आयी आर्थिक दिक्कत, उन्हें राजकपूर के पास ले गयी और राजकपूर ने उन्हें पैसे देने के साथ, अपनी नयी फिल्म 'बरसात' में दो गाने लिखने का भी किया. शंकरदास ने इस बार अपनी कलम को बहने से रोका नहीं और दो मुख्तलिफ अंदाज़ के गाने लिख दिए. नाईट क्लब में कैबरे करती महिला पर ' तिरछी नज़र है , पतली कमर है ' गीत ख़त्म करते ही शंकरदास कलम की रोशनाई में लतीफ़ मुहब्बत का सुरूर छिड़क दिया. अब जो गाना बना वो ' बरसात में हमसे मिले तुम सजन ' तुमसे मिले हम ' . पहली ही फिल्म के ये दोनों गाने आज़ाद हिन्दुस्तान की फिज़ाओ में तिरंगे की तरह हर जगह लहरा रहे थे. मथुरा और रावलपिंडी की मिटटी को मुंबई में महका रहे शंकर दास केसरीलाल शैलेन्द्र अब भारतीय सिनेमा में बेहद इज़्ज़त और अहतराम से 'शैलेन्द्र' के नाम से जाने जाने लगे.
अगले साल राजकपूर अपने एक बड़े ख्वाब के हर हिस्से में मुख्तलिफ रंग भरने की तैयारी में थे. इसी सिलसिले में उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास से कहानी सुनाने को कहा. बगल में बैठे शैलेन्द्र बेहद तल्लीनता से २ घंटे तक नरेशन सुनते रहे. कहानी के ठीक बाद राजकपूर ने शैलेन्द्र से मुस्कुराते हुए पूछा 'कवि राज , कुछ समझ आया '. शैलेन्द्र एक क्षण को ठिठके और कहा ' गर्दिश में था , आसमान का तारा था , आवारा था। २ घंटे की कहानी और किरदार के सम्पूर्ण चरित्र को सिर्फ एक वाक्य बयान करने का ये अनूठा हुनर शैलेन्द्र के गीतों की खासियत थी. यही लाइन 'आवारा ' फिल्म का टाइटल सांग बनी जिसकी लोकप्रियता भारत की सीमाओं को तोड़कर बाहर तक जा पहुंची. आवारा कुछ दिन का ही सफर तय करके भारत के सबसे यादगार गीत का सेहरा अपने सर बाँध लेता है
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अब शैलेन्द्र राजकपूर और हिंदी सिनेमा दोनों की ज़रूरी शर्त होते जा रहे थे. कुछ फिल्मो के सफर के बाद शैलेन्द्र , श्री ४२० के पड़ाव तक पहुंचते है. फिल्म के मुख्य किरदार राज ( राज कपूर ) जो छोटे शहर से मुंबई आता है , उसके किरदार के हर ताने बाने, खासियत को शैलेन्द्र एक गाने में इस तरह खींच देते है जो चरित्र और हालात की सबसे सच्ची बयानी है. ' दिल का हाल सुने दिल वाला , सीधी सी बात न मिर्च मसाला , ये पंक्ति राज के किरदार की अहम् बुनावट का हिस्सा है. इस गीत के पहले अंतरे में शैलेन्द्र कहते है ' छोटे से घर में गरीब का बेटा , मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा . रंज-ओ -ग़म बचपन के साथी , आँधियो में जली जीवन बाती , धूप ने है बड़े प्यार से पाला , दिल का हाल सुने दिलवाला।
किरदार की ख़ुदबयानी इतने खूबसूरत साहित्यिक लेकिन आसानी से दिल में उतरने वाले अंदाज़ में करना ये शैलेन्द्र का अपना खुदरंग था. इसी फिल्म का गीत 'मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी , सर पर लाल टोपी रूसी , फिर भी दिल है हिंदुस्तानी, हिंदुस्तानी होने के गर्व ,गौरव को बात इतनी लेयर में कहता है कि बात, लफ्ज़ो के अंदर की सतह में अपने अर्थ के साथ चमक रही होती है.
शैलेन्द्र सिर्फ और सिर्फ कमाल कर रहे थे. ज़्यादातर शायर और गीतकार , किसी ख़ास भाव, या ज़मीन पर अपने ख़यालात ज़ाहिर करने में माहिर होते हैं लेकिन शैलेन्द्र जिस इमोशन पर हाथ रख देते, लफ्ज़ उस भाव के सांचे में ऐसे ढल जाते जैसे पानी बर्तन में समा जाता है. शैलेन्द्र ने जब मोहब्बत की रूह को अपने लफ्ज़ो के लम्स से छूते तो एक अलग किस्म का मोज़ज़ा होने लगता. शैलेन्द्र को इश्क़ में प्रकृति का खुशनुमा रंग घोलने में महारत हासिल थी. 'ये रात भीगी भीगी , ये मस्त फ़िज़ाएं , उठा धीरे धीरे , वो चाँद प्यारा प्यारा ' . राज कपूर और नरगिस की धीरे धीरे से प्रेम की चढ़ती परवान को उरूज़ देता ये गाना , चाँद को अपनी मोहब्बत का गवाह, अपना हमनवा बना लेता है. ' ये रातें ये मौसम नदी का किनारा ,ये चंचल हवा , इस गीत में प्यार को बेलौस ख्याल को ,ज़मीन और आसमान, यहाँ तक सारा जहां , मन रहा है।
वही ज़िन्दगी के सार्वभौमिक सत्य को बेहद सादा लहजा देना हो तो 'सजन रे झूठ मत बोलो , खुदा के पास जाना है , जैसे गीत लिखकर शैलेन्द्र, भारतीय दर्शन को एक पंक्ति में साध लेते है. जीवन के मूल उद्देश्य को बेहद शरीफाना लहजे में कहना हो तो ' किसी की मुस्कुराहटो पे हो निसार , किसी की दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार , जीना इसी का नाम है ' गीत में शैलेन्द्र , ज़िन्दगी के सच्चे फलसफे में लय टांकते नज़र आते है।
जिंदगी की जिन गहरी फिलासफी और दर्शन को साधने के लिए कई बार कई किताब कम पड़ जाए और फिर भी उसका मानी लोगों के दिल की सबसे गहरी रंग में ना उतर पाए, ऐसे भावों को चंद पंक्तियों में इतना सुरीला बना देने का अद्भुत हुनर, शैलेंद्र के लिए बेहद आम सा रोजमर्रा का काम था । गांव की गव़ई बातों में स्थापित गूढ दर्शन को कबीर की वाणी जैसा सहज पन, सूरदास जैसी गेयता, और तुलसीदास जैसा लहजा देने वाले शैलेंद्र अब साहित्य और सिनेमा को जोड़कर कुछ ऐसा रच रहे थे, जो आने वाली कई सदियां अपने रिफरेंस के रूप में इस्तेमाल करने वाली थी।
वक़्त बीत रहा था और शैलेन्द्र जिस भाव को अपने कलम से सहला देते , वो सबसे मुकम्मल गीत की शक्ल अख्तियार लेता. शैलेन्द्र ने सिर्फ राजकपूर के होंठो पर अपने गीत नहीं रखे बल्कि और दौर के चाहे वो दिलीप साहब हो, या देव , शैलेन्द्र के गीत , किरदार की ज़रुरत और कई बार शर्त जैसे होते. मधुमति में "दिल तड़प तड़प के कह रहा है " के जरिए शैलेंद्र, दिलीप कुमार के होठों से फूट पड़ते हैं अपनी अलग अदा में मचलते देव साहब के तिरछी होठों पर जब शैलेंद्र के लफ्ज़ नाचते तो " खोया खोया चांद खुला आसमान " जैसे गीतो में देव साहब कहीं ज्यादा रोमानी नजर आते .
बहुत सारे गाने के ज़रिये जिंदगी से सीखे तजुर्बा को साधते शैलेंद्र धीरे-धीरे एक ऐसे मुकम्मल किताब की ओर बढ़ रहे थे जिसके हर वरक पर शैलेंद्र और उनकी छाप दिखाई पडनी चाहिए थी । आखिर शैलेन्द्र उस फिल्म की दहलीज़ तक पहुंचे जिसे वो खुद संवारना चाहते थे. 'तीसरी कसम ' फिल्म के निर्माता बनकर शैलेन्द्र , अपनी रगो में बह रहे लहू भी,इस फिल्म के नाम करना चाहते थे. फणीश्वर नाथ रेणु की आंचलिक कहानी "मारे गए गुलफाम " का चयन भी शैलेंद्र अपने मिजाज के अनुरूप किया। गांव के एक बेहद सीधे-साधे शख्स, का अपनी गाड़ी पर फिर किसी नाचने वाली को ना बैठाने की तीसरी कसम, एक निर्माता के रूप में शैलेंद्र की पहली फिल्म बनी।
फिल्म के गीत लिखने में भी शैलेन्द्र ने , सबसे नाज़ुक, कलम का इस्तेमाल कर, कालजयी गाने लिख दिए. फिल्म के हर दृश्य में शैलेन्द्र के दर्शन की झलक थी, लेकिन फिल्म ख़त्म होते होते , शैलेन्द्र अंदर से दरकने लगे थे. फिल्म बनाने के दौरान कई बार शैलेंद्र की जे़ब, किनारों से दरक गई और मेहनत से जमा किए सिक्के सिक्के उसमें से छलक कर बाहर गिर गए।
महीनों में बनने वाली फिल्म बनने में रफ्ता रफ्ता कई साल लग गए। इंडस्ट्री का बर्ताव, अपनों की ज़फ़ा , फिल्म का न चलना, शैलेन्द्र को से कही दूर चलने के लिए बार बार बुलाने लगा. तीसरी कसम को नेशनल अवार्ड मिले, दुनिया में सराही गयी लेकिन शैलेन्द्र के हाथ में सिर्फ रेखाओ के सिवा कुछ नहीं बचा था। बेहतरीन क्लासिक फिल्म "तीसरी कसम" अपने परदो पर सिक्के बटोरने में नाकाम साबित हुई । अपने ही लिखे गीत , न हाथी है न घोडा है, वहां पैदल ही जाना है ' की तर्ज़ पर , भारतीय सिनेमा का सबसे बाकमाल गीतकार , हमसे रूठकर , दूर चला गया।।
ना सिर्फ सिनेमा बल्कि साहित्य जगत ने भी अपने सबसे सुकुमार और भारतीय दर्शन को इतने सुरीले अंदाज में परोसने वाले महान गीतकार शैलेंद्र के सर पर कभी कोई मुकुट नहीं पहनाया। आज शैलेंद्र नहीं है लेकिन दुनिया की हर रस्मो रिवाज़, अदा ,भाव को जब भी सटीक लफ्ज़ देना होता है तो अचानक शैलेंद्र का लिखा कोई गीत बेहद लताफत से, आपकी सबसे कोमल उंगली थाम लेता है।
© अविनाश त्रिपाठी
Already, many manufacturers are realising that the pure companion to a CNC software is a 3D printer. Both work from digital design applications; CNC creates parts via cutting, drilling, and milling process while 3D printers build from the ground up. A single CNC mill or CNC lathe may be able to|could possibly|might have the ability to} perform quantity of|numerous|a OUTDOOR RING CAMERAS selection of} actions in a sequence previously equal to a group of machinists on separate machines. A lathe may be be} programmed to automatically swap cutting heads mid-operation, saving time during which a normal lathe would have to be turned off, the top swap manually, and then the process resumed.
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