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ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या हो

 

लफ़्जों के जादूगर- साहिर 

चंद कलिया निशात की चुनकर, मुद्दतों महवे-यास रहता हूँ

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही, तुझ से मिलकर उदास रहता हूँ।

 साहिर की लिखी ये चंद  पंक्तिया , उनके अहसास, शख्सियत का सबसे सच्चा और तल्ख़ ख़ुद ज़बानी  है.  इंसान के जिस्म की बनावट और दिल की बुनावट  दोनों में ही उसके माँ बाप और माहौल का असर  पड़ता है।   फागुन के गुलाल से मौसम में ८ मार्च को अब्दुल हई ने इस फानी दुनिया में कदम रखा. उनकी पैदाइश की बुनियाद में इन्तेहाई मोहब्बत जैसी बात न होकर, जिस्मानी क़ुरबत का ज़्यादा हिस्सा शामिल था. बाप खासा सख्त और   कुछ हद तक बदमिजाज़ था। 

 

Source: https://upperstall.com/profile/sahir-ludhianvi/

माँ बाप के रिश्ते दरक रहे थे.   इन टूटते रिश्तो की दरार में दुबका अब्दुल , धीरे धीरे तनहा और तल्ख़ होता जा रहा था.  बाप को देखकर मर्दो के रवैये पर अफ़सोस और माँ से सुहानुभूति और मोहब्बत का अहसास हर रोज़ ,कुछ और गाढ़ा  हो रहा था. अब्दुल हई  ने अब कॉलेज का रुख किया और यही से उनकी ज़िन्दगी ने सीने के बायीं ओर  हरकत करना शुरू कर दिया. अब अब्दुल शायरी करते थे और ज़माने को अपनी जादुई अशआर से मोहित कर रहे थे. ऐसे शख्स का नाम अब्दुल नहीं, साहिर ( जादू ) ही होना चाहिए था. 

शायरी के परचम को अपनी अलग लहजो-मिजाज़ से  साहिर सुर्ख रु कर रहे थे . तल्खियाँ लिख साहिर , बेहद कम समय मे बहुत मशहूर हो गए  थे, लेकिन उन्हे भी अंदाज़ा नहीं  था कि तल्खियाँ उनके जीवन मोहब्बत की बारिश ले के आएगी.  मुशायरे मे पहली बार साहिर को ग़ज़ल पढ़ते देख अमृता ने हर आती हुई साँस पर साहिर का नाम लिख दिया,  मुशायरे के दौरान साहिर की उड़ती नज़र ने अमृता को देखा भर होगा कि अमृता ने उनकी नज़र का सदका उतार उसे अपनी मुट्ठी मे बंद कर लिया. 

मोहब्बतें जब हद से गुज़रती है तो पागलपन, जुनून या शायद इबादत मे तब्दील हो जाती है. अमृता ने भी कुछ ऐसा ही किया. साहिर से हर मुलाक़ात के कुछ हिस्से को ज़िंदा कर अपने साथ रखने लगी, यहा तक साहिर की पी हुई सिगरेट  को अपनी उंगलियो मे वैसे ही फँसाकर पीती जैसे साहिर की उंगलियो मे अपना हाथ दे दिया हो. जहाँ जहाँ तुम्हारी उंगलियो मे दरार है, उस हर जगह के लिए सिर्फ़ मेरी उंगलिया ठीक उसी नाप की बनी है.


Source: https://scroll.in/reel/819201

साहिर मोहब्बत में एक हद तक सर्द  और बेपरवाह रहे।  साहिर के सर्द  , और कुछ हद तक उपेक्षा का कारण उनकी बीती हुई ज़िन्दगी थी. बचपन में जागीरदार पिता की कई पत्नियों में से एक साहिर की माँ भी थी.  साहिर की माँ पर पिता आग अलग जुल्म करते जिसके साहिर गवाह रहे हैं.  बचपन से ही उनके मन में माँ की लिए बेहद प्यार और सुहानुभूति और पिता के लिए एक हद तक नफरत भरती  चली गयी. 

साहिर  जब सिर्फ ८ साल के थे तो माँ बाप का अलगाव हो गया. मामला कोर्ट तक पंहुचा और पिता साहिर को वारिस के रूप में अपने पास रखना चाहते थे. यहाँ ये बताना भी गौरतलब  होगा की साहिर की कई सौतेली बहिन थी लेकिन लड़के के रूप में वो अकलेले खानदान के वारिस थे. 

यही वजह रही साहिर के पिता ने बहुत कोशिश की की साहिर को कोर्ट , उनकी कस्टडी में दे दे।  आखिर कोर्ट ने साहिर से उनकी रज़ामंदी पूछी और साहिर ने बाप की दौलत , ऐशोआराम को अपने कमज़ोर पैरो की ठोकर पर रखते हुए माँ की थोड़ी चूम ली. 

 माँ  के साथ मुफलिसी में पलते  और पढ़ते , साहिर, लुधियाना से लाहौर पहुंचे और वह पढाई करने लगे. वही पर सरकार के खिलाफ लिखने और कम्युनिस्ट विचार धरा  से लगाव के कारण उनको लाहौर छोड़ना पड़ा और वो दिल्ली आ गए. दिल्ली में किताब लिखते, मुशायरा करते उनकी मुलाक़ात अमृता से हुई और बहुत से औरतो की तरह वो अमृता के भी करीब हुए. लेकिन जल्दी ही ये रिश्ता , और रिश्तो से गाढ़ा  होने  लगा.

अब साहिर की अल्सर शाम अमृता के इर्द गिर्द बीतने लगी.     साहिर की मोहब्बत में टिका पाना बेहद मुश्किल था. हर खातून में वो अपनी माँ खोजने लगते. एक हद तक वो हर लड़की , औरत के करीब जाते फिर उस लड़की के दिल की बुनावट और फंदे का आकार  , माँ जैसा न पाकर, फिर उससे दूर जाने लगते. दिल्ली से भी साहिर का मन भरने लगा।    

 लाहौर से  दिल्ली की गलियों में घूमते घूमते जल्दी ही उन्होंने अपनी मंज़िल मुंबई बना ली.  साहिर अब अपने कलम का परचम, फिल्मो के गीत के ज़रिये फहराना चाहते थे।  यही उनकी मुलाक़ात गुरु दत्त और एस   डी  बर्मन  से हुई. गुरु दत्त की बाज़ी ने साहिर के हिस्से की भी बाज़ी जीत ली. तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले " गाना घरो में बजने लगा और साहिर एक पहचाना नाम होने लगे. साहिर ,एस  डी  बर्मन , गुरु दत्त को अब एक क़माल  करना था जो तीनो को तारीख़ में सुनहरे रंगो से सजा दे.'  प्यासा ' के एक एक गीत, साहिर के सिनेमाई जादू का जयघोष थे.

 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए ' में समाज से छला  हुआ शायर के दिल के छालो का हिसाब होता है. साहिर ने इस गाने में दिल निकाल कर रख दिया. " हम आपकी आँखों में ' मोहब्बत का पहला गीला गीला सा अहसास था।  'जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला ' एक बार फिर प्यार में हार की बेबसी का अंतर्नाद था.  इस फिल्म ने साहिर के क़द  को इंडस्ट्री में बेहद बड़ा कर दिया.  

कई फिल्मो की कामयाबी से गुज़रते हुए साहिर 'हम दोनों ' तक पहुंचते है और देव आनंद के तिरछी मुस्कराहट और बेफिक्र अंदाज़ को अपने लफ्ज़ो से सजाते साहिर इस फिल्म में लफ्ज़ो से भावनाये रोशन कर देते है.  अभी न जाए छोड़कर कि  दिल अभी भरा नहीं ,में देव साब , साधना से कातर पुकार करते दिखते  है की थोड़ी देर और पास ठहर जाओ.  गाने में साहिर ने दोनों प्रेमियों के घंटो बात करने के बाद भी , कुछ बचा रह जाता है' इस भावना को ज़िंदा कर दिया.

 इसी फिल्म में ' अल्लाह तेरो नाम , ईश्वर तेरो नाम' में कौमी एकता और मोहब्बत का ऐसा तराना लिख दिया जो कितनो स्कूलों का तराना बन गया.  उड़े जब जब ज़ुल्फ़े तेरी , मोहब्बत का मीठा तराना बन गया जब दिलीप साब ने वैजयंतिमाल के लिए 'नया दौर ; में अपना दिल भिगो कर पेश कर दिया   देवानंद के बेफिक्र लहजे को जब सलाहियत भरा अंदाज़ देना था तो साहिर ने ' मैं  ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया , हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया ' लिखकर, देवानंद के लिए ऐसा एंथम लिख दिया जिसने देव साब की शख्सियत  को बिना कहे हमेशा बयान किया.

अपने प्रगतिशील विचार और कौमी एकता का मुज़ाहरा करते हुए ' धुल का फूल ' में साहिर ने एक और गीत लिखा जिसने इंसानियत को थोड़ा और गाढ़ा  रंग ' दे  दिया। ' तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा ' इंसान की औलाद है , इंसान बनेगा। 

साहिर ने  नया दौर में ऐसा गाना लिख दिया जिसमे पंजाब की मिटटी की महक और खुशियों की  धमक थी. ' ये  देश है वीर जवानो का ' आज भी विवाह का एंथम  बना हुआ है.  अपनी जातीय ज़िन्दगी, अमृता प्रीतम और  सुधा मल्होत्रा  के दरमियान बंटे साहिर , आखिर उस गीत गीत तक पहुंचते है जो उनके वक़ार को और बुलंद कर देता है. '   मैं पल दो पल का शायर हूँ' लिखकर साहिर ने अपने फानी  ज़िन्दगी का  इशारा कर दिया.

२५ अक्टूबर १९८० को लफ्ज़ो में रौशनी भरने वाला ये पल दो पल का शायर, खुद  को ताज़िन्दगी अमर कर गया

©Avinash Tripathi

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