Header Ads

Showman Subhash Ghai

 

                                       

            पत्थर को तराशता एक पारस - सुभाष घई

६० का दशक डूब रहा था।  दशक के ख़त्म होने में एक आध साल बचे थे।  मुंबई के पड़ोस के शहर पुणे के एफ  टी  आई  से दो नौजवान , अपने अपने खव्बो के दिए को रोशन करने के लिए अपनी अपनी  राते जला रहे थे.  कोर्स पूरा होते ही ये दोनों नौजवान अलग अलग वक़्त में इस शहर की बुनियाद बदलने का ख्वाब लेकर आते है.  

इनमे से एक नौजवान  को छोटे किरदार, खल  चरित्र , करते हुए इन्हे एक आध नायक की भूमिका भी मिलती है लेकिन फिल्म की  बॉक्स ऑफिस की खिड़की के बाहर ही साँसे उखड जाती है.  आँखे में टूटते ख्वाब , हौसला तोड़ दे, इससे पहले दूसरा नौजवान, हार रहे अभिनेता   का हाथ पकड़ लेता  है और दुनिया ' कालीचरण' से वाक़िफ़ हो जाती है. और दूसरे  इस फिल्म को अपने बेहतरीन  दृष्टि से मुख्तलिफ रंग और दरिया दिली, दोस्ती और कमिटमेंट के इस चेहरे और  जज़्बात देने वाले नौजवान का नाम सुभाष था. .

सुभाष घई.   नायक को अपनी गाढ़ी आवाज़ और कुछ हद्द तक कठोर चेहरा और जिस्म देने वाले   नौजवान का नाम शत्रुघ्न सिन्हा था।  पुणे के दिनों की दोस्ती और एक दूसरे के हुनर से वाक़िफ़, सुभाष ने अपनी इस फिल्म को बड़ी हिट बनाकर ये दिखा दिया की अच्छी और कामयाब फिल्म के लिए , बड़े स्टार नहीं, बड़े  विज़न और खुद के क्राफ्ट पर यकीन की आवश्यकता होती है

 

[source:https://en.wikipedia.org/]

 
बेहद सज धज वाले खूबसूरत  नायको की परंपरा के विपरीत, खासे सख्त चेहरे वाले शत्रुघ्न सिन्हा को नायक बनाने की सोच और उस पर अमल करने वाले सुभाष घई  , एक सामान्य निर्देशक नहीं हो सकते थे.

 

[source:https://en.wikipedia.org]


.सुभाष घई  को पत्थर तराशने का हुनर आता है। बहुत सारे अनगढ़ , बेडौल पत्थरो को अपने हुनर, सोच, काबिलियत से सुभाष घई  ने एक खूबसूरत मुजस्मा बनने का मौका दिया।  यही नहीं ,   कोयले के नक्शो-नुकूश तराशकर उसमे हीरे से चमक भरने का नाम भी सुभाष घई  है।  बेहद आम से चेहरे मोहरे वाले शत्रुघ्न सिन्हा,  कालीचरण के बाद, अब खासी लोकप्रियता हासिल कर चुके थे और अब बाजार के खरे सिक्के हो चले थे और इन्ही को लेकर , सुभाष  घई ने विश्वनाथ ' बनाई जो कहानी, किरदार और निर्देशन, तीनो में अव्वल नंबर से पास हो गयी.  अपने   अनुरूप  संवाद गढ़ना , उसको वैसे ही सिनेमा के परदे पर प्रस्तुत करना, सुभाष घई  का अपना अंदाज़ और ख़ास लहजा है।  

 उन्हें दूर की नज़र भी हासिल है और वो हर अभिनेता की खासियत के अनुसार, किरदार गढ़ने में बेहद हुनर मंद है  सुभाष घई  को वक़्त की नब्ज़ पर हाथ रखना और उसकी धड़कनो को सुनने की सिफ़त भी हासिल हो गयी थी. पुनर्जन्म की एक कहानी के धागो में , बेहद खूबसूरत संगीत गूंथते , सुभाष घई  ने ' क़र्ज़ ' बनाई तो पूरा देश मोंटी ( ऋषि कपूर )  पर फ़िदा होकर ॐ शांति ॐ करने लगा.

 

[source:https://www.rottentomatoes.com]

 अलग अलग जन्मो में मोहब्बत करते दो दिल, किस कदर अलग होकर, दोबारा जुड़ने की कोशिश करते है , इस किरदार को गढ़ने के बाद, सुभाष है ने इसकी बिलकुल माकूल कास्टिंग की.  फिल्म की कहानी के साथ, सुभाष है, मौसिकी की हर थाप, हर लय  को भी अपनी उंगलियों पर थिरकाने जानते है. क़र्ज़ का हर गाना और म्यूजिक, हिन्दुस्तान के नौजवानो के दिलो में बहने लगता है। 

 देश के नौजवानो की रग में  मोहब्बत का नशा बहना शुरू  ही हुआ था कि  सुभाष घई  ने 'विधाता' बनाकर खयालो का रुख ही बदल दिया.  पहली बार दिलीप साब के भावो और संवाद को अपने निर्देशन के हुनर से संवारते सुभाष , ने बदले और हिंसा की कहानी में भी मुलामियत की जगह रखी।  अब सुभाष घई  सिर्फ निर्देशक  नहीं रह गए थे , पारस हो चुके थे. न जाने कितने पठारों में जान फूँकार, उन्हें हीरा कर चुके थे।    तीन बत्ती की खोली से एक लड़का , अब 'हीरो' बनकर 'प्यार करने वाले कभी डरते नहीं ' गुनगुना रहा था और हिंदुस्तान के अँधेरी कोठरी में रहने वाले न जाने कितने जग्गू दादा , एक बार अपने मसीहा 'सुभाष घई  ' से मिलना  चाह रहे थे।

 

 

[source:https://timesofindia.indiatimes.com]

 इस फिल्म ने कामयाबी की ऐसी लकीर खींच दी जिसने संघर्षशील , नाआशना लोगो के दिल में हौसली का चराग़  जला दिया. जैकी श्रॉफ और मिनाक्षी शेषाद्रि अब अजनबी नहीं , घर घर का नाम थे और जग्गू दादा को लोग इज़्ज़त से जैकी श्रॉफ बुलाते थे. हीरो में सुभाष घई  ने फिर एक बार , सिनेमा की बानी हुई रवायत तोड़ी और अपनी बनायीं हुई रवायत को एक बार फिर, लोगो के हाथो में फैसले के लिए सौंप दिया.  सच्चाई, अच्छाई और हुनर, की कोशिश, हमेशा कामयाबी की मंज़िल को आपके कदमो तक खींच लाती है.  

 अभी कई और कलाकारों को रोशन होने के लिए सुभाष घई  के हाथो संवरने  की ज़रुरत थी. १९८४ में मशाल से अपनी आंच दर्शा चुके 'अनिल कपूर' को एक ऐसे ही पारस की ज़रुरत  थी.  १ाभी तक अनिल कपूर कोई फिल्म कर चुके थे लेकिन सिनेमा के सफ्फाक परदे पर चम्पई रंग से बिखरे का मौका, अनिल के हिस्से में अभी तक नहीं आया था.  मेरी जंग ' ने अनिल कपूर के करियर की लड़ाई को एक झटके में जीत में तब्दील कर दिया।  एक दशक से अपनी पहचान तलाशते अनिल कपूर को ' मेरी जंग ' ने मुक़म्मल नायक का दर्जा दे दिया.

 

 

[source:https://timesofindia.indiatimes.com]


अपने पिता के साथ न्यायिक अन्याय की आंच में लम्हा लम्हा सुलगते अनिल कपूर, उसी न्याय के मंदिर में अपने पिता का बदला लेते है. एक प्रेमी, पुत्र, भाई और बेटे की भूमिका में अनिल ने इतने रंग बिखेरे कि  पहली बार उन्हें फिल्मफेयर में बेस्ट एक्टर का नॉमिनेशन मिला.  

अनिल को  यकीन हो गया कि  मेरे किरदार को अनोखी कहानी बड़े कैनवास और खुदरंग स्टाइल से अलहदा  तेवर देने का जो हुनर, सुभाष घई  के पास है, वो बिरला है. जल्दी दोनों ' कर्मा' में अपने हाथ की लकीरो को जोड़ लेते है. दिलीप साब की दमदार मौजूदगी,  नसीर जैसे बाकमाल एक्टर , और अनुपम खेर की सर्वश्रेष्ठ कमर्शियल ओपनिंग के बावजूद , अनिल कपूर इस फिल्म में अपनी चमक बिखेरने में कामयाब रहते है. 

 

[source:https://www.amarujala.com]

'हीरो ' के हीरो जैकी श्रॉफ भी कर्मा में अपने माथे की लकीरो में कामयाबी की एक और बड़ी लाइन खींच देते है.   सुभाष घई  जहाँ एक ओर  अनगढ़ पत्थर को तराश को अपनी कहानी की बागडोर पकड़ा देते थे, वही अपने भरोसेमंद अभिनेताओं को बार बार अपनी अपने किरदारों का चेहरा ओढ़ा देते थे. 

 राम लखन ' सुभाष घई  की एक और शाहकार  फिल्म थी जिसने अनिल, जैकी की जोड़ी को इतना अटूट कर दिया कि  कई लोग ,दोनों को सगा  भाई समझने लगे.माय नेम  इस लखन ' ने अनिल कपूर को जो पहचान दी ,वो तकरीबन ३० के बाद भी, आज भी बदस्तूर जारी है.  सौदागर ' में दिलीप साब और राजकुमार के कद्दावर किरदार को संतुलन देना , और दोनों के अहम् को टकराव से बचाना, सुभाष घई  की इंसानी व्यवहार की समझ को दर्शाता है.  

फिल्म के दौरान अक्सर , राजकुमार , अपने किरदार को दिलीप साब से किसी भी कीमत पर कमतर नहीं रखना चाहते थे. कई बार , दिलीप कुमार को ख़ास हरियाणवी ज़बान बोलते देख, वो भी इसी तरह की ज़बान में बोलने की ज़िद करते लेकिन  सुभाष घई  ने एक शानदार निर्देशक की तरह, दोनों के किरदार में भरपूर लोहा भरा और बिना हार जीत के किरदारों को तराशने में अपने हुनर का इस्तेमाल किया. खलनायक सुभाष घई  की ऐसी फिल्म थी जिसने उन्हें समाज, और कोर्ट , दोनों के कटघरे में खड़ा कर दिया. एक प्रतिनायक का समर्थन, गाने में चोली के पीछे फिल्मा कर, अश्लीलता को बढ़ावा देने के आरोपों से खुद को बेकसूर साबित करते  सुभाष घई ,अपनी सोच पर अडिग रहकर खुद को  नए प्रयोग के लिए प्रेरित किया.

 

[source:https://www.imdb.com]

 ४ दशकों से भी ज़्यादा हिंदी सिनेमा को अपना खून पसीना देते सुभाष घई , सिनेमा का दुनिया का सबसे बेहतर क्राफ्ट मानते है. फिल्मकार बहुत हुए लेकिन अपनी ऊँगली की छुअन से हर फिल्म को  मिडास टच देने वाले सुभाष  घई  को उनके ७६वे जन्मदिन की बधाई

©अविनाश त्रिपाठी

 

No comments

Powered by Blogger.