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Irfan Khan -Natural Actor Par Excellence

 

 

                                   बड़ी आँखों वाला बड़ा अभिनेता -इरफ़ान

२०११ की सर्दी रही होगी और मैं यूनिवर्सिटी की फिल्म क्लास में था. किसी स्टूडेंट ने पूछा कि  आपकी पसंदीदा फिल्मो के नाम बताइये.   २ घंटे की क्लास में मैंने कुछ नाम बताने के साथ एक फिल्म के किरदार और काम्प्लेक्स कहानी को उनकी जिज्ञासु पलकों पर लगभग ज़बरदस्ती रख दिया.  फिल्म जैसे जैसे खुल रही थी , कहानी के दो किरदार, स्टूडेंट्स की आँखों की ९० प्रतिशत जगह घेर चुके थे. छोटे क़द और आँखों  के अब्बा जी और छरहरे क़द बड़ी आँखों वाले इरफ़ान बदलती घटनाओ के साथ पानी की तरह बह  रहे थे.

 

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 ख़ास तौर पर इरफ़ान,  अब्बा जी के  दाहिने हाथ  और स्वामिभक्त गैंगस्टर से धीरे धीरे उनके कुर्ते में समाने की कोशिश करते है. भ्रस्ट पुलिस ऑफिसर  पंडित की भविष्यवाणी कि   ६ महीने में मिया मक़बूल ,अब्बा जी की जगह लेगा , ये बात मक़बूल की ख्वाहिशो की पतंग को आसमानी हवा देती है. मक़बूल में इरफ़ान ने ख्वाहिशो के स्याह रंग से लेकर , ग्लानि और अपराधबोध में डूबे  ऐसे किरदार को अपना चेहरा दिया जो अपनी उदास आँखों और टूटे  टूटे डाइलोग में चरित्र की हर  परत को अपने खुदरंग रंग से, रंगता चला  गया. 


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तीन दिन पहले रात में इरफ़ान के शहर जयपुर में पत्नी के साथ अंग्रेजी मीडियम देखा तो इरफ़ान का जिया हुआ पिता , मेरे पिता होने के हर फलक को नम  करता गया।   मिठाई  बंदनी  मिठाई की दुकान  मिठाई के  खानदानी  व्यापार में उलझे  ,कम पढ़े लिखे  इरफान ने  पिता की हर परत को  अपने प्यार से इस कदर सींचा  कि देखने वाले दर्शक  की  एक आंख हर वक्त  नम सी दिखाई दी। अंग्रेजी बोलने की कोशिश करते इरफान इतने मासूम से दिखते हैं कि मन उनके लिए गीला होकर स्नेह से भर जाता है।  फिल्म के बाद मैंने बगल में सो रही बेटी को जी भर के देखकर धीरे से चूम लिया और आँखों की पलक  पर नमक रहने दिया. 

 

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जयपुर के पास टोंक में जन्मे इरफ़ान आम नौजवान की तरह ज़िन्दगी की किताब पर, कुछ नयी इबारत लिखना चाहते थे लेकिन वो इबारत क्या थी  इसका सही सही इल्म उनको भी नहीं था. पिता यासीन अली , गाड़ियों के नीचे  रफ़्तार ( टायर  ) बाँधने ( बेचने )  का काम करते थे. इरफ़ान के उगते दिन , क्रिकेट की फील्ड में बल्ले से कलाकारी करते गुज़र रहे थे. बड़े होकर गावस्कर बनने के ख़्वाब  जब टूटने लगे तभी इरफ़ान को जयपुर में नाटको का नशा चढ़ गया. 

ज़िन्दगी के मानी तलाशते साहबज़ादे इरफ़ान अली खान , नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा तक पहुंच गए. किताब की पढाई ख़त्म होते ही इरफ़ान , मुंबई की सडको पे अपने मुस्तकबिल की तलाश में नमक का पानी बहाने लगे. इस दौर में उन्होंने ए  सी  मरम्मत का काम भी किया और एक दिन राजेश खन्ना के घर, उनका ए  सी  ठीक करने पहुंच गए. 

राजेश खन्ना की मक़बूलियत ने इरफ़ान को अपने एक्टिंग करियर में  और ज़्यादा लोहा भरने  का हौसला दिया।  छोटे छोटे किरदारों के सफर से इरफ़ान 'हासिल' तक जा पहुंचे जो उनके करियर का बड़ा हासिल था.  इलाहाबाद  के छात्र नेता के रूप में इस बड़ी आँख वाले लड़के ने ऐसा रूप धरा की लोग इरफ़ान की संवाद अदाएगी के दीवाने हो गए. अगले साल आयी मक़बूल ने इरफ़ान को इतना तराश दिया कि  किरदार को निभाने की इससे बेहतर पेशकश शायद ही संभव होती.


इरफ़ान के लिए अब नया दरवाज़ा खुल गया था , ये दरवाज़ा इरफ़ान ने सालो की मशक़्क़त के बाद इंच इंच खोला था. अब 'रोग ' नेमसेक ' और 'लाइफ इन ए मेट्रो' ने इरफ़ान को चेहरे मोहरे से भी आगे रखकर, हीरो यानी नायक का ज़िस्म ओढ़ने का मौका दे दिया. नेमसेक में अपने संस्कृति के साथ जुड़े अशोक , जब कलकत्ता से अपनी पत्नी के साथ अमेरिका शिफ्ट होते है, उनकी ज़िन्दगी भी अलग शिफ्ट ले लेती है. अमेरिका में पैदा बीटा, अपने पेरेंट्स की भावना और संस्कृति से अलग, अपनी आधुनिक दुनिया में बसना चाहता है. फिल्म के अंत में इरफ़ान की मौत, उसे बेटे गोगोल को किस हद तक भारतीय संस्कृति के करीब ले आती है, इसकी खूबसूरत दास्ताँ है. 

 विवाहेतर सम्बन्धो के इर्द गिर्द घूमती लाइफ इन ए मेट्रो में अलग जादू जगाते इरफ़ान , अब बीहड़ में उतरने का फैसला करते है. ' राष्ट्रीय स्तर के एथेलीट पान सिंह के साथ अन्याय, उसको चम्बल के बीहड़ का डकैत बनने पर मजबूर कर देता है. अपनी बड़ी बड़ी आँखों, और संवाद के बीच में पॉज से संवाद अदाएगी को आवाज़ पर नक्काशी जैसा हुनर बनाते इरफ़ान, पूरी फिल्म में पान सिंह की रूह ओढ़े दौड़ते दिखाई देते हैं. ' बीहड़ में तो बागी होते है, डकैत मिलते है है पार्लियामेंट में ' संवाद बोलते इरफ़ान, एक अलग सुर लगा बैठते है जो सीधे दर्शको के सीने की सबसे गहरी रग से टकरा जाता है.


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 लंच बॉक्स में उम्र दराज़ , विधुर  क्लर्क की भूमिका में  इरफ़ान, ज़िन्दगी के अकेलेपन, टूटते रिश्ते, असफल शादियों जैसे मुद्दे के बीच,  खतो  किताबत करते, रिश्ते की डोर  बाँधने का हुनर सीखा जाते हैं.   

अपने पति से रिश्तो में मधुरता की तलाश करती इला ( निर्मित कौर ) उसके लिए अलग अलग पकवान बनवाती है और डिब्बेवाले की मदद से लंचबॉक्स भिजवाती है. एक मानवीय गलती से लंचबॉक्स , साजन फर्नांडिस ( इरफ़ान खान ) तक  पहुंच जाता है और दो शुष्क हो गए रिश्ते को आत्मीयता से तर होने की खूबसूरत दास्तानगोई शुरू हो जाती है.   

'पीकू' में कब्ज़ से परेशान  भास्कोर (अमिताभ बच्चन ) और बेटी  पीकू ( दीपिका पादुकोण  ) के बीच अपनी उपस्थिति से कहानी को गतिशीलता देते इरफ़ान, अलग रंगत में दिखते  है.  भास्कर के प्रति पीकू के प्रेम से प्रेम की तरफ आकर्षित होते इरफ़ान, जब भास्कर पर झल्लाते है तो उसमे भी प्रेम की बुनावट दिखाई देती है.

 भारतीय सिनेमा में भिन्न भिन्न किरदारों को अपना जिस्म रूह और बड़ी आँखे देते इरफ़ान, अब अपना फलक इतना बड़ा कर लेते है की विश्व सिनेमा का हर आसमान, उनको अपना ध्रुव तारा बनाना चाहता है. लाइफ ऑफ़ पाई ' में पाई पटेल की भूमिका में रचे इरफ़ान, किस्सा गई की दास्ताँ रचते दिखाई देते है.  जुरैसिक वर्ल्ड , इन्फर्नो , जैसी कई विदेशी  फिल्म में भारतीय परचम लहराते  देसी 'हिंदी मीडियम ' में निखर  गए।   

 

अपने बेटी को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में भर्ती कराने की कोशिश में एक आम मध्यमवर्गीय दंपत्ति के परेशानियों के माध्यम से अंग्रेजी सिस्टम पर चोट करती फिल्म में इरफ़ान का भोलापन और बाप की ख्वाहिश से दिल पसीजने लगता है.  इन सभी फिल्मो में मुख्या नायक की भूमिका करते इरफ़ान ने भारतीय हीरो की चिर परिचित छवि  को उधेड़ कर रख दिया.   

 इरफ़ान ने कसी  हुई मांसपेशियों, जिम्नास्टिक की तरह नृत्य , मार्शल आर्ट करते सुदर्शन नायको की परिभाषा को धता बताते हुए अपने लिए किरदार गढ़ने के लिए ,लेखक और निर्देशक को मजबूर करना शुरू कर दिया. २०वी शताब्दी के पहले दशक में बेहद मजबूत बुनियाद ढालकर , दूसरे दशक में 'पान सिंह तोमर ' जैसे बुलंदो-बाला ईमारत खड़ी  कर दी.

 

उनके अभिनय की बारीकियों और ढेर सारी  फिल्म में उनके किरदार  पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। लंबे इकहरे जिस्म , उससे भी बड़े कद और उससे भी बड़ी आंखो वाले इरफान को उनके जन्मदिन पर याद करते हुये मन भरा हुआ है , गला  रुँधा  हुआ  है , लफ्ज़ो में दरार है

©Avinash Tripathi

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