The TV content of Indian GEC - A Big Disappointment
सच से दूर जाता TV मनोरंजन
किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था और सत्ता पर काबिज़ पक्ष के शास्वत विपक्ष होने की और आइना दिखाने की महती ज़िम्मेदारी मीडिया यानी ज़म्हूरियत के चौथे खम्बे पर होती है. जैसे जैसे ये चौथा खम्बा अपनी ज़िम्मेदारियों को ओढ़े विपक्ष की मानिंद , सत्ता की निरंकुश प्रवृति पर कलम का लगाम लगाए होता है और पैनी आँखों से हर गड़बड़ी को उजागर करता है, व्यवस्था बेहतर से बेहतर होती है।
सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं वरन कला, बाजार, सिनेमा सहित समाज के हर धड़कते और ज़िंदा हिस्से को मीडिया या प्रेस अपनी कसौटी पर कसती रहती है और कभी पीठ पर शाबाशी की धौल तो कभी सकारात्मक आलोचना से उसकी सतत बेहतरी में लगी रहती है। कला और सिनेमा पर तो आर्ट अप्प्रेसिअशन एंड फिल्म अप्प्रेसिअशन की एक लम्बी परंपरा है और विभिन्न माध्यमों में हम इससे लगातार अवगत होते रहते है. सिनेमा और आर्ट प्रेमी के साथ इन विधाओं के निर्माताओं को भी लगातार अपने बेहतरी और कमी के बारे में पता चलता है. फिल्म रिव्यु, लगातार फिल्म के तकनीकी, कंटेंट और सौंदर्य पक्ष को अपने तराज़ू से तौलती रहती है
इन सब के बीच में एक सबसे सशक्त माध्यम है जो बेहद चुपके से हमारे मुख्य कक्ष और शयन कक्ष में प्रवेश करता है, लगातार हमारे ज़ेहन में प्रभाव डालता रहता है। आश्चर्य है कि सालिहा साल हमारे ज़ेहन पर गिरते झरने की तरह टीवी पर जैसा मुसलसल माध्यम , बिना किसी रिव्यु और रोक टोक के बदस्तूर अपनी ख्वाहिश परोसना जारी रखे हुए है .विश्व स्तर पर अपने शुरुआती दिन में टीवी , रेडियो नाटक की परंपरा से आगे बढ़ा , १९३० में आने वाले रेडियो नाटक और उनके प्रयोजककर्ता के सोप कंपनी होने के कारन इसे सोप ओपेरा कहा जाने लगा.
(Source: Doordharshan) |
भारत में भी धीरे धीरे इसने अपना पैर पसारना शुरू किया. ८० का दशक अपने प्रथम चरण में था और देश इमरजेंसी के बाद ,राजनीतिक स्थिरता की तरफ बढ़ रहा था. रोज़गार के माध्यम भी बढ़ रहे थे हुए और कुछ वक़्त पहले ही देश ने बड़ा अंतर्राष्ट्रीय खेल समारोह एशियाड का आयोजन किया था. पहली बार टीवी भी स्याह सफ़ेद के क्लासिक रूप के बाद , रंगो से सराबोर हो रहा था। इन सब परिवर्तन के बीच विशुद्ध देसी कहानी से लबरेज़ एक सोप ओपेरा भारतीय टीवी पर उभरता है जिसने भारत के बड़े वर्ग को टीवी के सामने बैठे रहने के लिए मजबूर कर दिया. घर घर के लोग ' हम लोग " देखने बैठते तो अशोक कुमार के दोहे और नाटक का हर किरदार लोगो की जुबां पर चढ़ गए।
(Source: Serial Hum Log cast) |
संयुक्त परिवार, उनके हास्य, टकराहट , के इर्द गिर्द बुना गया ताना बाना , घर घर को अपनी कहानी लगने लगा। धीरे धीरे भारतीय मध्यम वर्ग की ज़िन्दगी से जुड़े वास्तविक मुद्दे भारतीय सोप ओपेरा में जगह पाने लगे. ८० का दशक बीता और ९० के दशक में खुली अर्थव्यवस्था , वैश्वीकरण ने टीवी के परदे और उसके कंटेंट को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया देश में आर्थिक प्रगति की तेज़ शुरुआत हो चुकी थी. कई बड़ी बहु राष्ट्रीय कंपनी, देश के माध्यम वर्ग पर अपने सामान और सपने लादना शुरू कर चुकी थी. अब सादा जीवन और उच्च विचार की मोल्ल भारतीय भावना कई गौड़ होना शुरू हो रही थी या यूँ कहे की जीवन में सादगी की लाइन धीरे धीरे हलकी पड़ना शुरू हो रही थी. बड़े कॉर्पोरेट घराने और शाही ज़िन्दगी की खबरे अखबारों में प्रमुखता से आ रही थी.
इसी सपने को करोडो भारतीय मध्यम , निचले वर्ग की आँखों में रोपने का काम बेहद होशियारी से एक लड़की करना शुरू कर रही थी जिसने जाने अनजाने में भारत की टीवी इंडस्ट्री की बुनियाद को बदल के रख दिया. भारतीय मीडिया की की सोप क्वीन बनी इस लड़की का नाम एकता कपूर है।
यही से सबसे बड़े सवाल और समस्या की बात बनी कि चाहे अनचाहे हमारे कमरों में झांकते नाटक और अतृप्त सपनो भरी आँखों में झूठ बेचती ये कहानिया , धीरे धीरे ऐसा संसार रच रहे थे जो २ % लोगो का सच हो सकता था देश का नहीं। ऐसा नहीं की ऐसी फिल्म नहीं बनती थी लेकिन सिनेमा के लिए आपको थिएटर तक जाना होता था और करोडो भारतीय शनिवार या इतवार को अखबार में आये रिव्यु से अपने मानस बना लेते थे. टीवी के नाटक अचानक आपके ठीक सामने उभरते है और किरदार धीरे धीरे आपकी रग में बहने लगते है. भारतीय आर्ट और सिनेमा अप्रिसिएशन से इतर , टीवी के कंटेंट, विषय, प्रस्तुतीकरण पर कोई गंभीर फीडबैक और रिव्यु नहीं विकसित हो पाया। नतीजा कोई भी अपने अवैज्ञानिक, अनैतिक , असंभव जैसी ख्याल, कहानियो के रूप में टीवी पर फेंक देता और भारतीय जनमानस की दिनचर्या और लहू में शामिल हो चुके टीवी सिरिअल्स की आदत ने उनके सोचने और जीवन जीने की बुनियाद को धीरे धीरे बदलना शुरू कर दिया. २००० में आये 'सास भी कभी बहु थी ' ने परिवार , उसकी कश्मकश ,रिश्ते उनके नए प्लेट में परोसना शुरू कर दिया.
(Source: Serial Saas Bhi Kabhi Bahu Thi) |
अब भारत का माध्यम वर्ग ,कहानी के केंद्रीय कथानक का हिस्सा न होकर , अभिजात्य वर्ग अपने शाही जीवन और अलग अलग तरह की रिश्तो के पेंच को लोगो के सामने सच जैसी तश्तरी में परोसने लगा. २१वी सदी ने खुलकर सांस लेना शुरू किया और देश के सामने टीवी एकदम से मेकओवर करके आ गया. अब कमज़ोर तबके की कहानिया, माध्यम वर्ग के रोज़मर्रा के संघर्ष टीवी की बाजार और बाजार निर्धारकों की नज़र में बासी और उबाऊ हो चले थे. टीवी इन अधकचरे विचार को बाजार की सीढ़ी पर चढ़कर ज़ोरदार तरीके से बेच रहा था और , व्यवस्थित टीवी कंटेंट क्रिटिक सिस्टम के अभाव ये सोच लगातार हमारे जीवन पर हावी हो रही थी।
वेस्ट की तरह भारत, अभिजात्य वर्ग की कहानी तो पेश कर रहा था लेकिन उनकी तरह हमारे पास आर्गनाइज्ड टीवी क्रिटिक सिस्टम नहीं था. अमेरिका में 'टेलीविजन क्रिटिक एसोसिएशन ' बेहद प्रभावी संस्था है जिसमे अमेरिका और कनाडा के २०० से ज़्यादा ख्याति प्राप्त पत्रकार, कॉलमनिस्ट , टीवी कंटेंट और पेश करने की नीयत पर लगातार नज़र रखते है और ज़बरदस्त फीडबैक सिस्टम से उनमे सुधार और डायलॉग की गुंजाइस बानी रहती है। सबसे कमाल की बात ये टेलीविजन क्रिटिक अस्सोसिएशन्स, साल में एक बार प्रेस टूर का आयोजन करता जिसमे सभी प्रमुख चैनल को अपने आने वाले प्रोग्राम को रूपरेखा इनको बतानी होती है. एक समर्थ फीडबैक सिस्टम , चैनल के कंटेंट, उनके समाज पर प्रभाव और रचनात्मकता के बीच में संतुलन साधने में बेहद अहम् रोल प्ले करता है.
भारत में टीवी कंटेंट को जांचने , उसमे सुधार के लिए कोई भी व्यवस्थित प्लेटफार्म या समर्पित आलोचक नहीं है. फिल्म के क्रिटिक गाहे बगाहे कभी किसी ख़ास टीवी कंटेंट पर अपनी नज़र डाल लेते है लेकिन उनकी बात टीवी प्रोडूसर्स तक प्रभावी तरीके से पहुंचे और उसकी कोई जवाबदेही भी हो, ऐसी कोई व्यापक व्यवस्था नहीं है। शायद यही कारण है की नागिन , पूर्व जनम के बदले और बहुत सी अंधविश्वास सी भरी कहानिया , पिछले कुछ सालो में टीवी के मुख्य समय को हथिया कर , हमारे मान्यता को प्रभावी विजुअल के द्वारा ऐसे प्रदूषित कर रही है की धर्म भीरु भारतीय समाज , उसे सच के करीब मानने लगता है।
(Source: Serial Naagin) |
दूसरी सामाजिक कहानिया भी एक तिहाई सच और तीन चौथाई झूठ के मिश्रण से समाज के सतह पर ऐसे तैरने लगी है की सच के अनूठे किस्से , कोने में अपने आपको कहे जाने की प्रतीक्षा में दुबके है। २१वी सदी की शुरुआत से सोप ओपेरा धीरे धीरे भारतीय मध्यम वर्ग को अमीरी , विवाहेत्तर सम्बन्ध , महिलाओ के खूबसूरत पोशाकों के सपने बेच रहा था और २१वी सदी रियलिटी शो के नए कंटेंट की दुधारी तलवार पर चलने के लिए अपने तलवे मजबूत कर रही थी। गायक , मॉडल , बोल्ड और बिंदास युवक युवती की खोज में अचानक रियलिटी के नाम पर कई सतही ख्वाब , आँखों के इर्द गिर्द मंडराने लगे। बाजार इसी के साथ ,गायिकी सिखाने की , मॉडल ग्रूमिंग और बोल्ड होने के नाम पर अश्लीलता को तोड़ता हुआ बड़ा होने लगा. रियलिटी के नाम नित नए तमाशे में सबसे लोकप्रिय 'बिग बॉस ' रहा।
(Source: india.com) |
आपस में अनजान और दुनिया से दूर कुछ लोगो को कैमरे के सामने कुछ अपनी असलियत कुछ लिखी इबारत और इशारो से दुनिया का मनोरंजन करना था. इस रियलिटी ने विद्रूपता , हिंसक लड़ाई को बाजार में हॉट केक की तरह बेचा। लोग रात के १० बजे का इंतज़ार करते जब कुछ सेलिब्रिटी अपने अपने तथाकथित नक़ाब से बाहर आकर अपना असली चेहरा दिखाते थे।
कुछ मानवीय गलतिया , कुछ मेकर्स के इशारे पर , मनोरंजन के नाम पर वो सब कुछ परोसा जाने लगा जो सुरुचिकर कभी नहीं कहा जा सकता। भारतीय समाज के कई अलग अलग स्तर के लोगो की दिमागी भूख और चाहत को पूरा करने के लिए ,टीवी प्रोडूसर्स ,नए और अचंभित करने वाले विषय की तलाश में जुट गए. अब दिल को मध्धम मध्धम सहलाने और छूने की कोशिश की बजाय , मानव की क्रूर साइकोलॉजी और रियलिटी के नाम ढेर सारे अपराध आधारित सीरियल का निर्माण होने लगा.
अपने आदम स्वभाव और उसकी प्रवित्ति को देखकर समाज का एक तबका , क्राइम पेट्रोल , सी आई डी जैसे सीरियल में पनाह ढूढ़ने लगा. पता नहीं समाज में होने वाले अपराध, रियलिटी के नाम पर इन सीरियल का हिस्सा बने या इन सीरियल में क्राइम की अलग अलग विधि देखकर बहुत से लोगो को अपराध के नए पैतरे पता चले। ये सारे प्रयोग जब चल रहे थे दुर्भाग्यपूर्ण तरह से कोई भी बड़ा कंटेंट समीक्षक , मीडिया ग्रुप , टीवी पर परोसे जाने इन विषय वास्तु पर कोई गंभीर विवेचना नहीं कर कर रहा था.
(Source: https://www.freepressjournal.in) |
पिछले कुछ दिनों से टीवी कंटेंट से एक कदम और आगे बढ़ते हुए वेब कंटेंट और डिजिटल प्लेटफार्म ने विषय, अन्तर्निहित डायलॉग , और उसके वैश्विक ग्राहक ने बाजार को ३६० डिग्री बदल दिया है. युवा वर्ग की आसान पहुंच , ४ जी नेट कनेक्शन और नयी मार्केटिंग व्यवस्था ने दुनिया को और तेज़ी से बदलना शुरू किया है. सेक्रेड गेम्स ' मिर्ज़ापुर, जैसे वेब सीरीज ने विषय वस्तु के साथ , संवाद में शालीनता और सामाजिक जिम्मेदारी के भाव से बिलकुल किनारा कस लिया है.
(Source: https://feminisminindia.com) |
अब सत्य या अर्ध सत्य को बेहद क्रूरता और कुरूपता से परोसने का चलना हो रहा है. कहानी वो नहीं है जो आपके दिल को छुए बल्कि कहानी जो आपके दिल पर प्रहार करे' इस धारणा और उद्देश्य के तहत नए डिजिटल सेरिअल्स का निर्माण किया जा रहा है. यह कहना बड़ी बात नहीं होगी की आने वाले कुछ ही वर्षो में दर्शको के डिजिटल प्लेटफार्म पर शिफ्ट हो जाने के डर से प्रमुख टीवी निर्माता और कंपनी , इसी खेल को टीवी के माध्यम वर्ग और अधेड़ आयु के लोगो को परोसना शुरू कर देगी
कुल मिलकर समाज में हो रहे हर परिवर्तन को आलोचनात्मक दृष्टि से सुधार करते और अंकुश रखा मीडिया, टीवी कंटेंट में अपनी प्रभावी भूमिका से परे रहा और उसका परिणाम पिछले दशक से साफ़ साफ़ परिलक्षित है।
©अविनाश त्रिपाठी
Truly explained,even as an audiance we should not appreciate such contents on TV...even it is not good for our kids
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