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The changing faces of Indian villains

 

 Villains : from over dramatic to real one

 

कहते है रोशनी की चमक देखने के लिए अंधेरा भी घना चाहिए,  राते जितनी स्याह होंगी, चाँद उतना उजला दिखाई देखा।  या यूँ कहें घुप्प अँधेरी रात के बाद, सूरज ज़्यादा चमकीला दिखाई देता है . इसी बात को कई दशको तक फ़िल्मो मे भी अपनाया गया. फिल्म के नायक को चरित्र को उजला दिखाने के लिए एकदम स्याह चरित्र गढ़ा जाने लगा जिसके तुलना मे नायक और सफ्फ़ाक़ और उजला नज़र आए. 

ज़ाहिर सी बात है की आम आदमी को स्वभाविक बुराई को अंडरलाइन करने के लिए उसमे बुराई का स्पष्ट  दिखता  ज़्यादा कालापन चाहिए था. ये किसी भी आदमी में मौजूद ग्रे एंड वाइट का स्वाभाविक संतुलन नहीं था. अब विलन यानीखल  चरित्र को अलग अलग मैनरिज़्म इस्तेमाल करके ,उन्हें ज़्यादा बुरा दिखाया जाने लगा जाने लगा . यही से फ़िल्मो मे खल नायक को वास्तविकता से दूर लार्जर देन लाइफ इमेज दी गयी. 

 

(Source: https://in.pinterest.com)

अपने शुरुआती दिनो  मे खल नायक फिर भी समाज का ही अभिन्न अंग लगा करता था, लोभ और मक्कारी से भरा ये खल नायक हर गाँव मे पाया जाता था. मदर इंडिया का सूदखोर बनिया हो जो ग़रीब किसान को चंद  रुपये का क़र्ज़ देकर उसकी सारी संपत्ति हड़प लेता हो, या राम और श्याम का लालची जीजा हो जो साले की संपत्ति के लालच मे उसपर अत्याचार करता हो,सब समाज के अंग लगते है.

 

(Sources: Kanhayalal  in Film 'Mother India')

 

 बेहद विश्वसनीयता   से निभाए गये ये खल चरित्र हुमारे आस पास के चरित्र लगते थे. बिना किसी स्टाइल और मैनीरिज़्म के ये चरित्र, प्रति नायक होने के बावजूद भी यकीन के काबिल थे. फिर दौर आया अमिताभ बच्चन की फिल्म का जिसमे अमिताभ की कद्दावर उपस्थिति की काट के लिए उनसे बड़े खल चरित्र गढ़े जाने लगे. यही से खल नायक को लार्जर  दैन  लाइफ इमेज दी गयी जिससे नायक उसको हराकर और बड़ा दिख सके. इस काल्पनिक खल चरित्र ने सच से दूरी बना ली और उपरी चमक दमक और ऊल जलूल गेट अप से अपने आप को अलग कर लिया. 70 के दशक की फिल्म "शान" के खल नायक शाकाल का चरित्र देखिएअंजान सूनसान टापू पर अपनी सेना के साथ आधुनिक कपड़ो और गजेट से घिरा ये खल नायक सच का हिस्सा कभी नही लगा. अपने दुश्मनो और गद्दार को किसी भी ग़लती के लिए मशीनी तालाब मे मगरमच्छ के सामने डाल देना, या तेज़ाब के ड्रम मे डुबो देना, शहर और सुविधाओ से दूर होकर भी बेहद आधुनिक मशीन और रंग बिरंगी लाइट के बीच मे खल नायक दूसरी ही दुनिया का वासी नज़र आता था. 

80 के दशक का विलैन मोगंबो के रूप मे एक डरावना जोकर नज़र आने लगा. अजीबो ग़रीब कपड़े और अड्डे और देश विरोधी कृत्य मे शामिल मोगंबो भी लार्जर देन लाइफ इमेज का विलैन था. गेट अप और ख़ास डाइलॉग डेलिवरी वाला ये खल नायक हमारे समाज का चरित्र नही था. 

 

  (Source: Amrish Puri in a still of film 'Mr. India')

फिर आया नब्बे के दशक का विलेन जो ना पूरी तरह खलनायक था ना नायक, ग्रे शेड वाला ये विलैन नायक जैसे वेशभूषा मे आम इंसानी कमज़ोरियो को प्रदर्शित करने लगा. अब ये खलनायक ना होकर प्रति नायक और एंटी हीरो था बाज़ीगर मे अपने परिवार कि मौत के प्रतिशोध मे जलता नौजवान प्यार को अपना हथियार बनता है. अपने परिवारिक दुश्मन की बेटी को अपने प्यार मे फँसा कर उसकी हत्या करता ये किरदार हत्यारा होने के बावजूद दर्शको से सुहानुभूति ले जाता है. वही एक तरफ़ा प्यार मे पड़कर जुनूनी प्रेमी की तरह ये प्रति नायक अपने प्यार के बीच मे आने वाले हर शख्स को ख़त्म कर देना चाहता है. डर ने एक ऐसे एंटी हीरो को जन्म दिया जिसके उपर गुस्सा भी आता है ,तरस भी. ज़्यादातर भारतीय नौजवानो के एमोशन को साधता ये चरित्र अपने दुस्साहस मे आम इंसान से ज़्यादा होने के बावजूद यकीन के काबिल लगता है. 

 

  (Source: Shahrukh Khan in film 'Darr' played a negative role)

नब्बे के दशक तक खलनायक अपनी भाषा मे नाटकीयता तो लाता था लेकिन उसकी भाषा गंदी और गालियो से भरी  नही थी. कुत्ते, कमीने, और ज़्यादा से ज़्यादा हरामजादे बोलता ये खलनायक 2000 के दशक मे अपने सच के चरित्र मे आ गया. न्यू वेव सिनेमा और सच का सिनेमा ने खल चरित्र के पूर्ण रूप से खल होने की पूरी आज़ादी दी. अब उसकी भाषा पर कोई रोक टोक नही थी. वो गालियो से भरपूर भाषा का इस्तेमाल करता था, गॅंग्स ऑफ वासे पूर ,ये साली ज़िंदगी समेत कई फिल्म्स मे खल नायक अपनी नाराज़गी या रोज़मर्रा की बातचीत मे सिनेमाई लिहाज की जगह सच की क्रूरता दिखाना बेहतर समझता है. 

अनुराग कश्यप ,सुधीर मिश्रा सहित नये निर्देशको ने खलनायक को उसकी भाषाई कुरुपता के साथ वैसा ही दिखाने की कोशिश की जैसे वो समाज मे रहता है. पूरी तरह से नायक और पूरी तरह से खलनायक का विभेद भी मिटने लगा जब थोड़ा सफेद थोड़ा स्याह किरदार लिखे जाने लगे. ग्रे शेड का ये एंटी हीरो अपने आचरण और विश्वसनीयता मे बिल्कुल खरा था. उम्मीद है आने वाले वक़्त मे सिनेमा मे अपनी मजबूत उपस्थिति से सबको बाँधने वाला ये चरित्र अपनी सच्चाई और किरदार के खुरदुरेपन के साथ वैसा ही दिखाया जाएगा जैसा ज़िंदगी मे होता है...

धीरे धीरे सिनेमा का ये खल  चरित्र स्मार्ट फ़ोन की चमकती रौशनी का हिस्सा हो गया।  अब सामूहिक रूप से फिल्म  देखने की मजबूरी या सामूहिक अनुभव नहीं रहा. अपने कमरे के किसी निजी हिस्से में बैठकर वेब सीरीज देखि जाने लगी. ओ  टी टी ने सरकारी सेंसर के न होने का ज़बरदस्त फायदा भी उठाया और विलन किरदार को खुलकर भाषा की विद्रूपता का इस्तेमाल का मौका दिया. यहाँ पर समाज के ऐसे चरित्र जो रियल जीवन में भरपूर गालिया इस्तेमाल करते है , उनको ,उसी भाषा के इस्तेमाल की पूरी छूट  मिली. अब प्रति नायक , को बेहद क्रूर होने की भी इज़ाज़त थी.   विलन की वेश भूषा भी साधारण थी और उसे खाल नायक दिखाने के लिए पहले जैसे ड्रामेटिक एक्सपेरिमेंट नहीं किये जा रहे थे. सामान्य कपड़ो में विलन , बेहद क्रूरता के साथ परदे पर ठन्डे लोहे की तरह उभरता था.बेहद लोकप्रिय हुई वेबसेरीज़ का किरदार कालीन भाई उर्फ़ पंकज त्रिपाठी एक ऐसा ही  खल चरित्र था जिसने अपनी आवाज़ के ठंडेपन और क्रूर किरदार में दर्शकों की रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर दिया 

 (Source: Pankaj Tripathi in web series 'Mirzapur')

भारतीय सिनेमा  नायक की लोकप्रियता के लिए , विलन हमेशा ही अपना योगदान करता है. एक अच्छी कहानी के लिए भी बेहद ज़रूरी ये विलन , कहानी में अलग तरह की विविधता भी लाता है

©अविनाश त्रिपाठी 

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