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Most stylish and flamboyant actor :Devanand

 

 

           देव फेस्टिवल , जयपुर

सिनेमा एक बीज की तरह हमारे दिल में उगना शुरू होता है और फिर धीरे धीरे बेहद घना दरख़्त हो जाता है. हम जब भी ज़िन्दगी की कड़ी धूप  में ,परेशान होते है..पसीने से तरबतर होते हैं, यहीं घना  दरख़्त , अपनी छाँव में लेकर , हमे सुकून देता है

 

इसी दरख़्त पर  पलाश की  की तरह उगा , एक चटख  फूल था, जिसने अपने रंग रूप से दुनिया को मोह लिया था. वो अपने तिरछे दांत से मुस्कुराता , तो  अँधेरे हाल में बैठी न जाने कितनी लड़किये के रुखसार पर , गुलाब खिल जाते. वो तिरछी चाल में चलता हुए आता , तो युवतिया , अपनी ज़िन्दगी का रास्ता भटक, उसकी ओर  चलने लगती।  वो सफ़ेद शर्ट में दुनिया  का सबसे उजला , सबसे खूबसूरत  गुनाहो का देवता लगता।  ऐसा देवता जिसने लड़कियों की पूजा में खुद को भी शामिल करवा लिया था.

 ऐसे शख्स  या यूँ कहूँ  शख्शियत  का नाम देवानंद था। २६ सितम्बर , १९२३ को पैदा हुए देव, आने वाले वक़्त में सिनेमा का सबसे लोकप्रिय और स्टाइलिश  चेहरा बन जाते हैं 

 


 

इस शख्स के जन्मदिन को सेलिब्रेट करना, जीवन का उत्सव मनाना  है. देश के अलग अलग हिस्सों में लोग इस मोहब्बत और अंदाज़ के करिश्मे का उत्सव  मनाते है ,लेकिन किरदार में गुलाबी और अंदाज़ में शाही शहर जयपुर में ज़िन्दगी से भरपूर कुछ लोग ,इस इश्क़ के खुदा का उत्सव  मनाते है. इस उत्सव का नाम  देव फेस्टिवल जयपुर है.

आज से कुछ साल पहले एक डूबती शाम में इसी शहर  में , ज़िन्दगी से भरे एक शख्स, रवि कामरा ने देवानंद के फलसफे को अपना चेहरा दे  दिया.  उन्होंने नीव के पथ्थर की तरह, ज़मीन में गड़कर ,एक ऐसी इमारत का ख्वाब देखा जो देवानंद की ज़िन्दगी का उत्सव है.

जब इरादे खूबसूरत और निष्पाप हो , तो ऊँगली   पकड़ने वाले कई मजबूत हाथ मिल जाते है. रवि कामरा  को डॉ गोविन्द शर्मा जैसे अनुभवी व्यक्ति मिले और देव की ज़िन्दगी का  महोत्सव ' देव फेस्टिवल" जयपुर,  के नाम से आकार ले लिया. 

 


 

 

धीरे धीरे इस नवजात और अधसिंके  से ख्याल ने अपनी रगो में इश्क़ भरना शुरू किया। देखते ही देखते जयपुर देव फेस्टिवल ५ साल का सफर तय कर चूका है।  अब इस कारवां में बहुत से लोग जुड़ गए है लेकिन देवानंद के फलसफे ' मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया , हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया , की लकीर पर चलते हुए रवि कामरा ने  तमाम   बाधाओं    के बावजूद, ज़िन्दगी का ये उत्सव मनाना नहीं छोड़ा।

 इस साल जब कोरोना ने लोगो के पैरो के हर सफर को तोड़ दिया, लोग घरो की दरों -दीवार में खिड़किया बनाने में लगे थे , ऐसे मुश्किल वक़्त में भी रवि कमरा और डॉ गोविन्द शर्मा की जोड़ी ने वही किया जो एक वक़्त गुरु दत्त और देवानंद ने किया था. इस साल वर्चुअल फॉर्म में  देव फेस्टिवल जयपुर  अपने  होने का पुरज़ोर ऐलान कर रहा है.  इसमें विभिन्न पैनल डिस्कशन है ,  इंटरव्यूज है ,देव साब के गाने का म्यूजिकल प्रोग्राम है।  कुल मिलकार देव फेस्टिवल, 'जयपुर   हिंदुस्तान और विदेश को लोगो को भी ठहरकर ,एकबार ज़िन्दगी को दोबारा जीने का मौका देता है..एक बार आपको देव  जैसा होने का, अवसर देता है. 

 

 


देवानंद को सिर्फ एक फिल्म से समझना हो तो हर इंसान को गाइड देखनी चाहिए. गाइड ने मेरे बचपन को भी इतनी लताफत से सहलाया है,  कि  वक़्त की उंगलियों की हलकी छुवन , अब भी मेरे बदन की ऊपरी परत पर महसूस होती है. 

देव फेस्टिवल जयपुर का फोकस इस बार  " गाइड " फिल्म है जिसने देव साब को एक ऐसे अभिनेता के रूप में स्थापित किया जो  किरदार की   सबसे गहरी  परत  प्रवेश कर जाता है. गाइड बहुत  से लोगो के लिए भारतीय सिनेमा का रिफरेन्स पॉइंट  भी है। 

सुनिए मेरी और गाइड की कहानी।

               प्रेम का निष्पाप दर्शन हो और प्रेम अपने कच्चेपन से पकने की प्रक्रिया में, मस्तिष्क की किसी महीन रग से पैर की नस में उतरकर चटकने लगता है. ये तड़प ,चटकन जब शिद्दत की हो तो इंसान बेसुध होकर 'नृत्य करता है,

 प्रेम और किसी को पाने की इसी तपस्या को जब विजय आनंद की आँख मिलती थी ,तो " गाइड " बनती थी.  दरियाओं   की तरह बहती और बल खाती  "वहीदा रहमान " गाइड में अमरत्व पा जाती है और देवानंद मोक्ष। 

 

 

 

कुछ गीत आपके प्रारब्ध में ऐसे लिख दिए जाते है जिसका होना आपके जीवन की सार्थकता कहलाता है , बड़े फलक पर कहूँ   तो कुछ फिल्मे इन गीतों को अपने आगोश में छिपाये ऐसी यात्रा पर निकल पड़ती है जिनके पड़ाव में जो भी शहर आते है, शादाब हो जाते है , हरे हो जाते है. ऐसी ही कुछ फिल्मो के सफर में मेरा शहर भी आया था. बचपन के पंख फूटने के दिन थे और सारा आकाश आसमानी नहीं, गुलाबी दिखता था.  बरसो पुरानी फिल्म ' गाइड' '  किसी भीगी भटकी  गोरैया की तरह मेरे शहर में लगी. प्रचार गाडी में "कांटो से खींच के ये आँचल " गाना बजा तो ज़्यादातर लफ्ज़ो के मानी न मालूम होने के बावजूद रूह में इक फांस सी गड गयी. फिल्म देखा तो उग रहे गुलाबी मन के एक  हिस्से पर पहले अब्र की बारिश हुई।  बहुत वक़्त तक वो हिस्सा तेज़ खुश्क हवाओ के बावजूद नम रहा।

अपनी फिल्मो में दिल को फासने की सुनियोजित संरचना साधने वाले इस योगी का नाम विजय आनंद उर्फ़ गोल्डी था। आनंद भाइयो में सबसे छोटे गोल्डी में फिल्म को लेकर एक मुसव्विर एक पेंटर और तबले पर तीन ताल बजाते हुए मौसिकीकार की रूह की तरह थे. दृश्य संरचना की , तो ज़माने के हर रंग- ओ-बू  को फ्रेम  में ऐसे  सजा दिया जैसे कोई  शाहकार कुछ दिल से रच रहा है. प्रेम की तीव्र आंच पर मध्यम मध्यम पकता कोई गीत बनाना हो और गीत के उस रूह में कोई दोशीज़ा जिस्म डालना हो तो गोल्डी खुदा हो जाते।  हर चीज़ में बराबर की नापतौल जैसे छोटे इलेक्ट्रॉनिक वेइंग मशीन, एक ग्राम भी ज़्यादा हो  तो दिख जाय. 

 

 


 

भाई देवानंद बड़ा स्टार हो चूका था , अभिनय से ज़्यादा देव अपने बेहद सुदर्शन व्यक्तित्व , दिल लुभाने वाली अदा , तिरछा चलना और गहरे रोमांस में तर युवक के रूप में जाने जाते थे. गोल्डी ये नहीं बनना चाहते थे , उनकी अपनी अलहदा ज़मीन थी जिसपर उनके ख्वाब बरसना चाहते थे. १९५७ में भाई देवानंद की फिल्म 'नौ दो ग्यारह ' से गोल्डी  निर्देशक की कुर्सी पर बैठे और अपनी नज़र से दुनिया को मुख्तलिफ कहानिया बयान  करने लगे. काला बाजार "  हकीकत " जैसी कई बेहद शानदार फिल्म बनाते हुए गोल्डी  अब उस सफर पर निकल चुके  थे  जो शायद मोक्ष की ओर जाता था. कुछ निर्देशक जो भी करते है, सिर्फ कमाल करते है, लेकिन कोई एक फिल्म उस कमाल  का शिखर बिंदु और उरूज़ बन जाती है. सफर के बीच में गोल्डी उस  उरूज़,  मोक्ष " यानि "गाइड' तक पहुंच गए.

 


 

 गाइड सिर्फ गोल्डी ही नहीं देवानंद की ज़िन्दगी का वो खूबसूरत वरक बन  गयी जिसमे अक्सर लोग तितलियों के  या मोरपंख रखते है. जब भी खोलो, बेहद खूबसूरत नज़र आती है।  पुराने किले की टूटी हुई उम्मीदों जैसी ईंट और युद्ध से लेकर प्यार की बहार में उगते पलाश से पुराने दरख़्त को जानने वाला  गाइड "राजू " जब एक तवायफ की बेहद खूबसूरत नृत्याँगना बेटी को किलो और गुफाओ के बारे में बता रहा होता है, दोनों के अंदर एक हरी कोंपल उगने लगती है. राजू  अपने गाइड की ज़िन्दगी से ज़्यादा "रोज़ी" के नृत्य को देने लगता है. उसके पति मार्को से अलगाव और नृत्य के जूनून से राजू और रोज़ी इतने  करीब  आ जाते है कि सिर्फ सांस और गलतफहमियों की बारीक जगह बच जाती है. एक ऐसी ही ग़लतफ़हमी की वजह से राजू जेल में होता है और छूटने पर साधू के गोल का हिस्सा. अपनी बातो से 'राजू' गाँव में संत जैसा हो जाता है और  अकाल ग्रस्त गांव में बारिश का उपवास कर बैठता है।  "१२ दिन बाद बारिश तो होती है लेकिन प्रेम की ज्वाला  में जल रहे गाइड राजू की आग को बुझा उसके जिस्म को ठंडा कर जाती है. कहानी, दृश्य और वहीदा रहमान के नृत्य में गोल्डी उस नभ के उच्चतम शिखर  को छू गए जिसको छूना आने वाली  कई पीढ़ियों के निर्देशक के लिए बादल पर घर बनाने जैसा होगा.

 © अविनाश त्रिपाठी

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