Cinema Screen से झांकते Indian Festivals
हिंदी फिल्मों में भारतीय त्योहारों का चित्रण
आदि काल से मानव अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति
के लिए विभिन्न माध्यम खोजता रहा है. विकास प्रक्रिया के शैशव काल में गुफा की पथरीली
दीवारों पर देखे , अनदेखे , चित्र और चरित्र उकेरे जाने लगे। इन चित्रों में शिकार से लेकर , धार्मिक परंपरा
, ईश , सहित दैनिक कार्यो के चित्र होते है. संवेदना और घनीभूत हुई और समय चक्र बदला
, तो मानव ह्रदय की गोद संरचना में फंसे दिल के गहरे भावो को कविता के माध्यम से व्यक्त
करने लगा. नए शब्दों के प्रवाहमय अनुप्रयोग से वाक्यों को लयात्मक गति मिलने लगी और
भाव बेहद सुन्दर और सारगर्भित होकर निकलने लगा. सदियों तक गुणीजन अपने भावो को किन्ही
कविताओं के माध्यम से ज़्यादा प्रभावशाली और प्रवाह के साथ व्यक्त करते रहे. समय चक्र
ने गति पकड़ी और धीरे धीरे उड़ान भरी तो प्रकृति में बसे हुए संगीत को मानव अलग अलग वाद्य
यंत्रो के माध्यम से पुनर्जीवित करने लगा।
संगीत की शुरुआत तो हो चुकी थी लेकिन
उसे लयात्मक व्याकरण में बांधना भी ज़रूरी था जिससे संगीत लहरियो का व्यवस्थित आनंद
लिया जा सके। अब संगीत में अलग अलग रागो को जोड़ा गया. समय, मौसम के हिसाब से अलग अलग
राग और उनके आरोह अवरोह बनाये गए।
अब तक कहानी , कविता संगीत , पेंटिंग , नृत्य सहित बहुत सी कलाओं का
उद्भव हो चूका था। १९वी शताब्दी के अंत तक तक मूवी कैमेरा के आविष्कार से कला और तकनीक
का पहला मेलजोल हुआ।
सिनेमा ने सिर्फ कला और तकनीकी को जोड़ा नहीं बल्कि ऐसा अचम्भा किया की दुनिया इस सबसे नए कला के आगमन से आश्चर्यचकित हो गयी। गीत, चित्र , कहानी , रंग , रौशनी , फोटोग्राफी जैसे अनेक कला के रेशमी धागे जुड़कर जो शाहकार बनाते है ,उस करिश्मे का नाम सिनेमा है।
भारत में सिनेमा के आरम्भ काल में ज़्यादातर
फिल्म्स , पौराणिक कहानिया , धार्मिक ग्रन्थ और चरित्रों पर आधारित रही है। ज़्यादातर फिल्म्स में भारतीय उत्सव का चित्रण किया
जाता था क्योकि इन त्योहारों का ज़िक्र ,पुराणों और धार्मिक कहानियो में भी था.
भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म
"राजा हरिश्चंद्र " भी पौराणिक कहानी का एक बेहतर नमूना थी। दादा साहब फाल्के ने फिल्म के ज़्यादा हिस्से को
खुद किया जिसमे निर्देशन ,कैमेरा , कला निर्देशन , मेक अप और एडिटिंग भी शामिल थी।
१९१३ से लेकर १९३१ तक ज़्यादार फिल्म धार्मिक कहानियो के आस पास रची गयी. पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा ' के आने के बाद फिल्म में सामाजिक मुद्दे भी प्रमुखता से उठने लगे। इन मुद्दे में उस दौर की समस्याएं , कुरीतिया भी अलग कलेवर में दिखाई जाने लगी।
१९४३ में आयी फिल्म 'किस्मत ' फिल्म
जो शायद भारत की पहली सुपर हिट और ब्लॉकबस्टर फिल्म थी , उसमे भी दीवाली त्यौहार को
बेहद कारगर तरीके से कहानी और किरदार में बुना गया है . 'ऐ दुनिया बता घर घर में दिवाली
है ' इस गीत के माध्यम से निर्देशक 'ज्ञान मुख़र्जी ' ने अमीर बाई कर्नाटकी की आवाज़
को बेहतर तरीके से ऐसे मौके पर दिखाया जब कहानी अहम् मोड़ ले रही थी। ५वा दशक शुरू होते होते फिल्मो में त्यौहार के दृश्य,
कहानी में उनका अहम् स्थान और कई गीत, त्यौहार के इर्द गिर्द रचे जाने लगे।
दिवाली की ही तरह होली भी भारतीय फिल्म
में बेहद अहम् तरीके से कहानी और कथ्य का हिस्सा बना रहा १०४० में आयी फिल्म 'होली ' कहानी को मजबूत धरातल
देती है जिसपे कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है।
फिल्म के प्रथम दृश्य में ही होली के त्यौहार को पूर्ण जोश और उल्लास के साथ
दिखाया गया है। 'फागुन की ऋतू आयी रे ' गाने
ने सभी पात्रो के चरित्र को उभारते हुए मुख्य किरदार सुन्दर , उसकी बहन कोकिला और उनकी
माँ के रिश्तो को भी चित्रित किया है। मशहूर
कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी ने अपनी आवाज़ से इस गाने को अलग शास्त्रीयता प्रदान कर
दी।
इसी तरह से बहुत सारी हिंदी फिल्म में गानो और महत्वपूर्ण
दृश्य के माध्यम से फिल्म द्वारा अपेक्षित सन्देश को बेहद ख़ूबसूरती और नफासत से कहानी
के महीन धागो में पिरोया जाता रहा है। कुछ
महत्वपूर्ण फिल्म और उसमे त्यौहार के अति प्रभावशाली चित्रण की विवरण निम्नलिखित है
सिलसिला- रिश्तो के महीन ताने बाने और विवाहेतर सम्बन्धो की परिधि में उकेरे गए इस महत्वपूर्ण विज़ुअल दस्तावेज़ में महत्वपूर्ण भारतीय त्यौहार 'होली ' को कहानी के केंद्र में रखा है। अपने प्यार को मंज़िल तक न पंहुचा पाने का अफ़सोस अमित( अमिताभ ) को भी था और चांदनी (रेखा) को भी . विवाह पूर्व के प्रेम के विवाह की मंज़िल तक न पहुंच पाने के परिस्थितिगत कारण से अलग दोनों शख्स , अपने अपने विवाह में पहले प्यार की ऊष्मा खोजते है। अलग अलग विवाह के सालो बाद जब दोनों वापस मिलते है तो अधूरेपन को पूर्ण की चाहत हो जाती है। फिल्म के इस अति महत्वपूर्ण सीक्वेंस को होली, अपने मस्ती, हास्य , व्यंग और ठिठोली के माध्यम से आगे बढाती है। फिल्म में होली के बेहद लोकप्रिय और चर्चित गाने 'रंग बरसे ' के ठीक पहले अमित और चांदनी ,एक दूसरे के जीवन साथी से अपने अधूरे प्यार की कसक की चर्चा करते है।
फिल्म के इस दृश्य
तक दोनों के जीवनसाथी को उनके पूर्व सम्बन्ध की भनक नहीं होती और रिश्ते के पूरे ताने
बाने को बयान करने का होली जैसे खिलंदड़ त्यौहार से उत्तम नहीं हो सकता था। निर्देशक यश चोपड़ा ने इसी सुलगते अहसास को रंगो
की ठंडी फुहारों से धीरे धीरे बुझाते कहानी को कुछ अनफोल्ड किया और कुछ अगले कदम को
झीना सा इशारा किया। अल्हड , मस्ती में डूबे हुए अमित होली के बहाने अपनी
दिल की बात जो संवाद में कहना मुश्किल और अटपटा था, उसे ख़ूबसूरती से गाने के बहाने
कह दिया। "सोने की थारी में जोना परोसा
, खाये गोरी का यार , बलम तरसे ,रंग बरसे। गाने के स्थायी और अंतरे दोनों में गोरी
से उसके यार की करीबी और बलम का नावाकिफ होना या तरसना , रिश्ते के पूरे फ़साने को बेहद
ख़ूबसूरती और बिटवीन द लाइन्स की तरह प्रस्तुत करता है।
इस तरह से फिल्म रचाव बसाव में होली
के त्यौहार, उसकी ऊर्जा, चंचलता और मज़ाक करने की छूट के बहाने निर्देशक ने बेहद सफलता
से फिल्म के महत्वपूर्ण मोड़ को आसान कर दिया . दामिनी - नारी संघर्षो और आत्मसम्मान
की लड़ाई कई भारतीय फिल्म में कभी टुकड़ो और कभी पूर्ण केंद्रित तरीके से दिखाई गयी है। दामिनी उन फिल्मो में शामिल है जो फेमिनिस्ट थ्योरी
की फिल्म की बुनियाद में गहरे रूप से गड़ी हुई है। ये चरित्र को फैशनेबुल तरीके से महिला
आज़ादी की लड़ाई की बात न करते हुए ,बल्कि ज़मीन पर उनके आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते दिखाई
गयी है। लेकिन इस महिला प्रधान महत्वपूर्ण
फिल्म के हृदयस्थल पर 'होली ' जैसे त्यौहार का काम फिल्म की ज़मीन तैयार करना है।
होली को कहानी में महत्वपूर्ण बैकड्रॉप की तरह इस्तेमाल कर निर्देशक राजकुमार संतोषी ने 'होली ' में रंगे चेहरो को इंसान के ओढ़े हुए नक़ाब की तरह पेश किया है . जिस तरह होली में रंग लगाकर इंसान अपनी शक्ल बदल लेता है या पहचानने के क़ाबिल नहीं रहता , ठीक ऐसे ही दामिनी में होली के रंग लगाकर कुछ इंसानी दरिंदो ने अपने चेहरे पर नक़ाब लगा लिया. निदा फ़ाज़ली ने कहा है कि "हर आदमी में होते है दस बीस आदमी, जिसको भी देखना , कई बार देखना ' . .राजकुमार संतोषी ने इसी प्रवित्ती को होली के प्रतीकात्मक माहौल में दर्शाया है।
बलात्कार के खिलाफ खड़ी दामिनी अपने ही परिवार के साथ लड़ाई लड़ रही होती है और नौकरानी के पक्ष में कोर्ट में भी जाती है ,उस वक़्त भी इसी होली को दामिनी के खिलाफ पेश किया जाता है . रंग बिरंगे चेहरों में कई लोगो को शिनाख्त के लिए कोर्ट में लाया जाता है और रंग के पीछे छुपी साजिश के तहत ,दामिनी को पागल क़रार करने की कोशिश भी होती है फिल्म के हर हिस्से में होली, उससे जुड़े वाकये , रंग , उनके पीछे छुपी कुछ लोगो की नीयत , दिखाई देती है। दामिनी में एक अकेली औरत के अपने परिवार के साथ समाज के बड़े हिस्से पर प्रहार को भी दिखाया है।
डर - भारतीय फिल्म में बीच बीच में एंटी हीरो के कांसेप्ट पर काम तो हुआ है पर जिस फिल्म ने इस अवधारणा को घनीभूत किया वो यश चोपड़ा निर्देशित डर थी। युवा शाहरुख़ अभी फिल्म की ज़मीन पर अपने पैर को मजबूती से जमाने का हुनर सीख रहे थे कि उनके हिस्से में एक ऐसी फिल्म आ गयी जो उन्हें एक विलन के रूप में स्थापित कर सकती थी। इस फिल्म की बुनावट में भी महत्वपूर्ण भारतीय त्यौहार 'होली ' को जिस तरह बना गया है वो कहानी की जड़े गहरा भी करता है और सिर्फ उत्सवधर्मिता के प्रदर्शन के लिए होली का इस्तेमाल नहीं किया है। कहानी के बेहद अहम् मोड पर त्यौहार आता है और कहानी की दिशा बदल देता है। फिल्म में किरन ( जूही चावला ) अपने भैया और भाभी के साथ होली मनाने घर आती है।
उसके साथ पढ़ रहा राहुल जो मन ही मन में किरन को प्यार करता है, किरन पर पल पल की नज़र रखता है। होली के उत्साह भरे माहौल में जहाँ हर रिश्ता अपनी परत खोलता नज़र आता है, राहुल भी होली के उत्सव में शामिल होकर किरण को अपनी मोहब्बत की गुलाल लगाना चाहता है।
राहुल ,किरन के प्यार सुनील से भी वाकिफ
है फिर भी एक तरफा प्यार की आग उसे जला रही है और होली उसके लिए एक खूबसूरत मौका है
जहाँ दुश्मन भी गले लग जाते है।
शोले - भारतीय फिल्मो में भव्यता , तकनीकी विशेषता
, किरदारों के गठन और उनके क्रमवार उभार , संवाद और त्यौहार को बेहतरीन तरीके से फिल्म
में पेश करने का श्रेय फिल्म शोले और निर्देशक 'रमेश सिप्पी को को जाता है। फिल्म की पटकथा में डाकू और उनसे
परेशान आस पास के गाँव की बुनियाद पर कड़ी इस फिल्म में त्यौहार का बेहद इफेक्टिव तरीके
से इस्तेमाल हो पायेगा, ये सोचकर हमेशा संशय रहा होगा। रिश्ते को प्रग़ाढता देने के लिए होली के गाने को
लिखा गया ' होली के दिन दिल खिल जाते है ,
रंगो में रंग मिल जाते है ' ठीक इसी तरह होली भारतीय समाज में भी अक्सर रिश्तो की गर्मजोशी
को वापस लाकर रिश्ते मजबूत करता है।
शोले में निर्देशक 'रमेश सिप्पी ' ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए होली को एक तरफ फिल्म के मुख्य किरदार के प्रणय निवेदन का आधार बनाया और दूसरी तरह होली के रंगो में डूबे गाँव को त्यौहार की बुनियाद के ठीक उलट , डाकू आक्रमण का मौका भी बताया। फिल्म के दृश्य गठन में ठाकुर बलदेव सिंह ने गाँव को डाकू गब्बर सिंह के आतंक से बचाने के लिए दो चोर , जो बेहद साहसी, बुद्धिमान और बहादुर है , को बुलाया।
भारतीय फिल्म की आवश्यक गठन
के तहत जहाँ फिल्म के नायक और नायिका के बीच प्रेम की गुंजायश निकाली गयी वही होली
जैसे त्यौहार को डाकू ग्रसित फिल्म में दोतरफा तरीके से पिरोया गया. फिल्म में बेहद
ख़ूबसूरती से पैरेलल शॉट के एक तरफ होली की
मस्ती , रंग, प्रेम निवेदन और गाँव वालो की खुशियों का चित्रण किया जाता है वही दूसरी
तरह डाकू गब्बर सिंह का गाँव पर क्रोधित होकर आक्रमण करना होता है. होली दोनों ही दशाओ
के ठीक बीच में ऐसा आधार देता है जहाँ प्रेम की अभिव्यक्ति की जगह भी है, और ७० एम
एम के बड़े परदे पर रंग के ठीक बाद , गब्बर का आक्रमण , वो कंट्रास्ट भी सहजता से दिखाने
में सफल रहा है जहाँ दृश्य की ज़रुरत गाँव के बिखरे और बड़े विन्यास की थी. होली में
पूरे गाँव का शामिल होना और फिर गब्बर के गिरोह के गाँव के हर हिस्से पर आक्रमण , जय
और वीरू की खोज , के लिए इससे बेहतर कोई और घटना पृष्ठभूमि नहीं हो सकती थी रमेश सिप्पी ने बेहद होशियारी और सिनेमैटिक ब्रिलिअन्स
के साथ इस चर्चित भारतीय त्यौहार को कहानी का अभिन्न अंग बनाया और कहानी के मूड और
मोटो ,दोनों के ठीक इस त्यौहार के चित्रण के बाद बदल दिया
रंगो के चुहल भरी खुशिया को अक्सर उसके
कंट्रास्ट के साथ बुने गए होली के फिल्मांकन
के साथ अक्सर निर्देशकों ने प्रसिद्द भारतीय त्यौहार दिवाली को भी उसकी बुनियादी चमक
के साथ , उसके विपरीत भाव से भी दिखाया है।
जहाँ होली आपसी मिलन , प्रेम , सौहार्द्य
का उत्सव माना गया है वही दिवाली , चमक , वैभव , ऐश्वर्य के साथ जुड़ा है। कई भारतीय फिल्मो में दिवाली की इसी बुनियादी प्रवित्ति
के अलग दृष्टिकोण या ऐसे घटनाक्रम की तरह पेश किया गया जो कहानी के लिए बेहद ज़रूरी
था। कुछ मशहूर दिवाली दृश्य जिन्होंने फिल्मो
के कथ्य में अनूठा प्रयोग किया , निम्लिखित है
ज़ंजीर - अमिताभ के फ़िल्मी चरित्र निर्माण में बेहद
अहम् भूमिका निभाती ये फिल्म दिवाली और उससे जुडी खुशिया, वैभव और चमक के ठीक विपरीत
कहानी में नए मोड़ के साथ आती है। दिवाली में
पठाखो के शोर गुल के बीच बालक अमिताभ , बंद अलमारी के झिर्री से अपने माता पिता का
खून होते देखता है। दर से सहमा अमिताभ खलनायक
के चेहरे से ज़्यादा झुकी नज़रो से उसके जूते देख पाता है।
पूरी फिल्म के कथ्य और गठन में दिवाली
को उस बुनियाद की तरह दीकहाया है जो सर्व मान्यता के विपरीत के किसी के जीवन में उजाला
नहीं, अँधेरा लाती है और साथ ही साथ किरदार को फिल्म का बड़ा मोटीव और उद्देश्य देती
है. फिल्म की कहानी का सबसे पहला और प्रबल
पक्ष यही होता है की फिल्म का नायक अपनी कहानी को आगे बढ़ाएगा तो उसके पास दर्शको को
अपने साथ जोड़ने का कौन सा मजबूत उद्देश्य है. यही कहानी को पैशन के साथ आगे बढ़ता है।
वक़्त - जहाँ ज़ंजीर में दिवाली , एक
काली रात की तरह उभरती है , अपने ज़माने के पहली मल्टी स्टारर फिल्म 'वक़्त ' में दिवाली,
शुभ आयोजन और अधेड़ खुशनुमा दंपत्ति के बीच प्यार और चुहल का मर्मस्पर्शी दृश्य ज़िंदा
करती है। आइकोनिक सांग " ऐ मेरी ज़ोहरा
ज़बी , तुझे मालूम नहीं , तू अभी तक हंसी और मैं जवाँ, तुझपे कुर्बान मेरी जान ,मेरी
जान , इसे दिवाली की पृष्ठभूमि में रचा बसा था।
एक भरे पूरे परिवार इसमें दंपति और
उनके बच्चे बेहद प्यार के साथ रह रहे है , दिवाली उनकी ख़ुशी और उसके ठीक बाद अलगाव
का बेहतरीन प्रतीकात्मक दृश्य संयोजन है . दिवाली को दिए की रौशनी के साथ जोड़ा जाता
है जो दुनिया को प्रकाशित करता है लेकिन ठीक उसे नीचे घुप्प अँधेरा होता है। "वक़्त " फिल्म में बेहद नफासत के साथ
इस प्रतीकात्मक विन्यास को दिखाया गया है. दिवाली की चमक दमक और खुशियों के तुरंत बाद
दुःख, दर्द , अलगाव उसी चिराग की रौशनी की तरह है जो दुनिया को रोशन करते वक़्त अपने
तले अँधेरा रखता है
कुल मिलकर देखा जाय तो भारतीय फिल्मो
में विभिन्न भारतीय त्यौहार को बेहद रचनाधर्मिता और क्रिएटिव ब्रिलिअन्स के साथ दिखाया
गया है. होली और दिवाली जैसे महत्वपूर्ण त्यौहार के अलावा 'रक्षा बंधन ' कुम्भ का मेला , मकर संक्रांति जैसे अन्य त्योहारों
को भी उनके ज़रूरी तत्व के साथ पेश किया गया है जिस तरह समाज में अनेक त्यौहार , जीवन में उत्साह , प्रेम
, मिलान , वैभव और अन्य रिश्तो को प्रगाढ़ करने का काम करते है , फिल्मो में भी त्योहारों
के इस मूल तत्व के साथ उनके अन्य रचनात्मक प्रयोग के साथ भी दीकहाया गया है। फिल्मो में त्यौहार सिर्फ खानापूर्ति के लिए नहीं
बल्कि कहानी में अहम् स्थान होने के कारण दिखाए गए है और ज़्यादातर फिल्म में वो कहे
और अनकहे तरीके से अपने अपेक्षित संचार को सही तरीके से प्रेषित करने में सक्षम भी
साबित हुए है।
यही नहीं भारतीय फिल्मो में क्रिसमस और नए साल के पर्व को भी उसकी ख़ूबसूरती और कहानी में उसके आवश्यक गठन के कारण भव्यता के साथ दिखाया गया है।
© अविनाश त्रिपाठी
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