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एक मुक़म्मल शाहकार -राजकपूर -A complete Filmmaker

   

 राजकपूर

सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम पूरी तरह तरह भरा हुआ था, हॉल की पहली पंक्ति मे सफेद सफ्फ़ाक़ सूट मे एक ऐसी शख्सीयत बैठी थी जिस पर ऑडिटोरियम के हर शख्स की नज़र टिकी हुई थी. मंच पर तालियो की गड़गड़ाहट के बीच मे एक नाम पुकारा गया और लोगो के आश्चर्य के बीच महामहिम वेंकटरामन जी प्रोटोकाल तोड़कर खुद उस शख्स के पास नीचे आए और पुरूस्कार उस कद्दावर शख्स को सौंप दिया. भारतीय सिनेमा के सबसे करिश्माई और मुकम्मल शख्स को सम्मानित करते स्वयं पुरूस्कार की गरिमा बढ़ गयी थी. भारतीय सिनेमा के इस जादू का नाम रणवीर राज कपूर था.

 

 

 

पेशावर के वो दिन 

 पेशावर की ज़मीन मे 1924 को उगा ये फूल अपनी महक से सारे ज़हां को सराबोर करना चाहता है. पिता पृथ्वीराज कपूर की यायावरी की वजह से ख्वाबो के शहर मुंबई पहुचा राज, पिता की तरह फ़िल्मो मे अपना ठहराव खोजता है. शीशे के सामने खुद को देख मंत्रमुग्ध होना, पास खड़े केदार शर्मा को भा गया और रणवीर राज कपूर फिल्म का नायक बन गया. राज कपूर अपने तरह के नायक बनना चाहते थे जिसकी आवाज़, अदा, अंदाज़ और उसके मोहब्बत की आग भी उसकी निजी हो और यही आग राज कपूर की पहली निर्देशित फिल्म "आग' की बुनियाद बनी. अपनी दूसरी फिल्म "बरसात " मे नरगिस के साथ बारिश मे जलते हुए एक ऐसी मोहब्बत पेश की जो थोड़ा  सफ़र और तय करती तो मोक्ष पा जाती. देह से हटकर मोहब्बत की रूह मे परत दर परत झाँकते, राज कपूर रूहानी मोहब्बत के सबसे बड़े पैरोकार के रूप मे उभर रहे थे. अभी कमाल होना बाकी था और ये कमाल हुआ राज कपूर की सबसे खूबसूरत शाहकार "आवारा" मे. परवरिश और हालात किस कदर इंसान की बुनियाद बदल देते है और राज कपोर के हक़ और हक़ूक की लड़ाई मे जब नरगिस उनका हाथ थाम लेती है तो आवारा दुनिया के सामने सामाजिक हालात और मोहब्बत का अनूठा मेल का बेहतरीन उदाहरण बन जाता है.

 

 

 सामाजिक मुद्दों का हुनरमंद चितेरा

 अपने शुरुआती दिनो मे पथरीली नींद मे काँच का सपना देखते राज कपूर मासूम मोहब्बत के मसीहा होते है वही नयी सहर मे नये हिन्दुस्तान के बदलते हालात पर भी वो अपना हाथ रख देते है. "जागते रहो' मे  यही राज रेशमी कपड़ो मे छिपी गंदगी को इस बारीकी से दिखाते है कि टाट के कपड़े खूबसूरत लगने लगते है. गाँव से शहर आया एक सच्चा भोला इंसान ,कामयाब और अहल-ए-शहर लोगो की कारस्तानी देख टूट जाता है. प्यास मे मारा मारा फिरता राज समाज के दोहरेपन को इस प्रतीकात्मकता से दिखाता है कि जो लोग राज कपूर को मोहब्बत का प्रतीक मानते थे वही इस शाहकार को सामाजिक धड़कन को समझने वाला चारागर मानने लगे. श्री 420 से होते हुए ये बेइन्तिहा खूबसूरत सफ़र एक ऐसे मोड़ पर पहुचा जहाँ राज कपूर खुद बयानी चाहते थे.

 

 

 

आँखों में दर्द, लबो पे हंसी

 मेरा नाम जोकर मे अपनी ज़िंदगी के मूल को दर्शाते राज अपने दर्द के आँसू से दूसरो के मुस्कान खिलाने का काम करते है. 

 

 

 

अपने वक़्त से बहुत आगे की इस फिल्म की असफलता ने राज कपूर को तोड़ा ज़रूर लेकिन किशोर प्रेम की मासूमियत जब पलाश की कोपल बन, बदन से फूटने लगती है तो सारा देश "बौबी " बन जाता है. संगीत, सिनिमॅटोग्रफी, लाइट, निर्देशन और अभिनय के नये आकाश, नये बिंब गढ़ने वाले इतने बड़े फिल्मकार जिसने बहुत कलाकारो के दो जून की रोटी का इन्तेजाम किया, दो जून को ही हमे छोड़ गया. राज कपूर पैदा नही होते, किसी समाज को नसीब होते है.....

राजकपूर की जिंदगी का सबसे खूबसूरत दस्तावेज, बहुत  से अनछुए पहलुओं को जानने  के लिए नीचे दिए लिंक पे क्लिक करें  

https://www.youtube.com/watch?v=Vfbv9mVMYLM&t=88s 

©अविनाश त्रिपाठी

 


5 comments:

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