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लफ्ज़ो के पीर - गुलज़ार

 

 गुलज़ार

धूप से झुलसते सेहरा और तेज़ बहती हुई नदी के बीच मे अगर कोई पतली पगडंडी हो जिसकी मजबूत ज़मीन पैरो को धरातल दें और पानी उस ज़मीन की गर्मी सोख उसे शीतलता दे तो उस पगडंडी का नाम संपूरन सिंह कालरा होगा, गुलज़ार होगा. तेज़ धार वाले नेज़े से आँखो मे महीन सूरमा लगाने का हुनर अगर आज भी किसी गीतकार के पास है तो वो सिर्फ़ गुलज़ार है.  अगस्त यानी भादो धीरे धीरे मचल रहा था.   अक्सर जब दिन घुटने लगता तो बादल अपने सांवले बदन को खोल देता. बारिशे ,धरती के सीने पर गीला गीला संगीत रचने लगती. लेकिन मौसम को भी पता नहीं था कि उसकी हर बात को अपने जादुई लफ्ज़ो में उकेरने वाला कोई शख्स ,जल्दी ही दुनिया में आने वाला है. 

 

 


 

   18 अगस्त 1934 को दीना,पाकिस्तान मे जन्म लिए गुलज़ार अपनी शुरुआती दिनो मे उर्दू ज़बान की लताफत से बेहद मुतासिर थे. अपने एक कदम में सम्पूरन  सिंह, ज़िन्दगी का ककहरा बाँध लेते तो दूसरे कदम में उर्दू शायरी और उसकी रवायत बंधी रहती .  उर्दू शायरो के कलाम को ज़िंदगी से जोड़ने की कवायद करते गुलज़ार धीरे धीरे शायर के किरदार मे ढलने लगे. आज़ादी के बाद मुंबई आकर अपने मुस्तकबिल की तलाश मे गुलज़ार को कुछ दिनो तक गुलाब के जगह गेंहू ज़्यादा तवज़्ज़ो देनी पड़ी. छतिग्रस्त गाड़ी को ठीक करने के गैराज़ मे गुलज़ार ने अपने हाथो के हुनर से कई गाड़ी के रंग रूप को खूबसूरत बनाया. गाडी की रंगने की नीरस प्रक्रिया में भी गुलज़ार ने ज़िन्दगी का खूबसूरत रंग देख लिया  

 


 

 

  रंगो के इस पारखी को पता था कि गाड़ी को कौन सा रंग भाएगा. बेजान चीज़ो मे जान भरने की इस अदा ने उनको विमल रॉय तक पहुचा दिया. हालाँकि फ़िल्मो मे जाने के विरोधी गुलज़ार खालिस साहित्य मे जाना चाहते थे और उस दौर के तरक्की पसंद मोमेंट का हिस्सा भी रहे. उसी दौर के मित्र देबू सेन ने उनकी मुलाक़ात विमल रॉय से करा दी. बंदिनी बना रहे विमल दा को एक ऐसे गाने की ज़रूरत थी जिसमे नायिका के प्रेम के इज़हार मे अध्यात्म, लोक साहित्य का भाव हो. इस पर गुलज़ार ने जो लिखा वो इतिहास हो गया.

 

 


 

 

एक गीतकार के रूप में 

 मेरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दै दे, अपने पहले ही गाने को गुलज़ार ने जो साहित्य और सिनेमा के बीच का पुल बनाया वो क़ाबिले तारीफ़ था. यही नही अपनी प्रतिभा के बल पर गुलज़ार विमल दा के असिस्टेंट भी बन गये. धीरे धीरे गुलज़ार अपने फिल्म के किरदार की सोच बनते चले गये. किसी भी खास स्थिति मे किरदार की ज़बान से बेहद सधी भावनाओ मे क्या निकलना चाहिए इसका सटीक शब्दो मे इज़हार गुलज़ार का ही हुनर हो सकता था. इजाज़त फिल्म मे पति की बेवफ़ाई से टूटी हुई पत्नी का अपने पति से "मेरा कुछ समान तुम्हारे पास पड़ा है, सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे है, और मेरे एक खत मे लिपटी राख पड़ी है, या थोड़ी सी बेवफ़ाई फिल्म का गाना" हज़ार राहे जो  मुड़ के देखी की लाइन " जहाँ से तुम मोड़   मुड़  गये थे,ये मोड़ अब भी वही पड़े हैं, हम अपने पैरो मे जाने कितने भवर लपेटे हुए खड़े है, हमे ये ज़िद थी की हम बुलाते, हमे ये उम्मीद की वो पुकारे, है नाम होंठो पर अब भी लेकिन, आवाज़ मे पड़ गयी दरारें, ये करिश्मा सिर्फ़ और सिर्फ़ गुलज़ार कर सकते है. टूटे हुए रिश्ते मे आवाज़ मे दरार का बिंब सिर्फ़ गुलज़ार गढ़ सकते थे. आंधी फिल्म में आत्मनिर्भर औरत की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और ईगो से टूटते दरकते रिश्तो को इतनी मुलामियत से गढ़ा कि  सम्पूर्ण फिल्म , मरासिम के बिखरने  का सबसे मानवीय दस्तावेज़ बन गयी. यही नहीं इस फिल्म के हर गाने में गुलज़ार साब ने शब्द  , बिम्ब और दृश्य का ऐसा प्रतीकात्मक ताना बाना बुना कि  गाने कहानी ,कहानी के जिस्म में ज़रदोज़ी की हुई रूह साबित हुए.  तुम आ गए हो ,नूर आ गया है, गीत रोमानी ज़मीन पर रिश्तो की गहरा करने का प्रयास था. 'तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई , शिकवा तो नहीं ' टूटकर फिर जुड़ने की प्रक्रिया और इस अकेले सफर का खालीपन बताता था. यही नहीं गाने के बीच में संवाद और उसकी दार्शनिकता ने  गाने के प्रभाव को अनंत काल के लिए हमारे ज़ेहन पर चस्पा कर दिया .  गुलज़ार साब को तलवार के धार पर ऐसे  चलने का हुनर हासिल था कि  चले और पैर  में ज़रा भी खराश ना आये.  यही नही बच्चो के मिजाज़ से मिलता चड्डी पहन के फूल खिला हो या बीड़ी जलैले जैसे गानो मे लोक सन्दर्भो का जिस खूबसूरती से गुलज़ार ने बयान किया है वो भारतीय फिल्मी गीत परंपरा मे साहिर लुधियानवी को छोड़ कोई आस पास भी नही लगता.  शैलेन्द्र के बेहद गहरे जीवन दर्शन के गीत , साहिर के उर्दू खुसूसी मोहब्बत के एक्सप्रेशन के बाद , गुलज़ार साब ने रिश्तो की बारीकियों को अपनी ख़ास पर्सोनिफिकेशन से बिलकुल मुख्तलिफ लहज़ा दे दिया.

 

 अपने लफ्ज़ो से दूसरी ही दुनिया का तसव्वुर खींचने वाले गुलज़ार को शब्दों में तस्वीर टाँकने  की कला भी बखूबी आती थी।  एक गीतकार की हैसियत से गुलज़ार ने तमाम गीत को कहानी में ज़रदोज़ी कर टांक दिया लेकिन बहुत सी कहानियो को कहने में गुलज़ार ने महारत हासिल कर ली. कहानिया , स्क्रीनप्ले और गीत लिखते लिखते , गुलज़ार , अब कैमरे के पीछे से किस्सागोई करने लगे. अपनी पहली फिल्म 'मेरे अपने ' में गुलज़ार ने नए प्रयोग किये. हालाँकि बंगाली फिल्म 'अपनजन' की रीमेक 'मेरे अपने ' की खासियत विनोद खन्ना और डैनी  थे. विनोद खन्ना तब तक अपने खल  चरित्र की वजह से जाने जाते  थे।  पहली बार नायक की मुख्य भूमिका में विनोद खन्ना ने अपनी पुरज़ोर उपस्थिति दर्ज़ कराई. इसी तरह डैनी  ने भी परदे पर पहली बार अपने होने का उद्घोष किया।

इसके बाद की  दो फिल्मो ने गुलज़ार की बारीक नज़र और संवेदनशील ह्रदय की बानगी पेश की।   जहाँ परिचय ने म्यूजिक सीखने और बच्चो  के  सहज हास्य और उगते प्रेम  के अंकुर को उपजाया , वही कोशिश में गुलज़ार, निर्देशन और विज़ुअल  स्टोरी टेलिंग में बेहद कमाल दिखा गए.

 

 


 

 

कोशिश का एक एक फ्रेम , धनात्मकता की इतनी खूबसूरत पेटिंग लगती है की आपका दिल दोनों मुख्य किरदार के लिए नम  हो जाता है.  मूक बघिर युगल में प्यार की मध्यम  शुरुआत , एक साथ रिश्ते में बंधना  और फिर संतान का होना , अधूरे रिश्ते को सम्पूर्ण करने का प्रयास था।  मूक बघिर अभिभावक के   बच्चे के भी अपनी तरह न सुनने का आभास  या शंशय होते ही संजीव कुमार और  जया  ने अभिनय की जिस ऊंचाई को छुआ , उसके पीछे गुलज़ार का बेहद संवेदनशील निर्देशक था.

कोशिश हर मायने में गुलज़ार के मन की गीली मिटटी पर उभरी एक खूबसूरत मानवीय तस्वीर है. 'अचानक ' जैसी शानदार मर्डर मिस्ट्री पर काम करते हुए गुलज़ार भी एक ऐसे पड़ाव पर पहुंच गए जिसने उन्हें , राजनीतिक उपक्रम पर बेहद सटीक और लिरिकल फिल्म बनाने का मौका दे दिया. १९७५ की गर्मी तन के साथ मन और हौसले को भी सूखा रही थी , इसी बीच इंदिरा और इमर्जेन्सी से प्रेरित होकर गुलज़ार ,एक तेज़ झोंके की तरह आते है। ये झोंका 'आंधी ' में तब्दील हो जाता है.  इस फिल्म के गाने में भी गुलज़ार ,साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं. टूटी हुई इमारतों के मेटाफर से रिश्तो के टूटने की वेदना को सजाते गुलज़ार, एक पेंटर की भांति , हर स्ट्रोक में सही रंग भर रहे थे. 

 

 

 


 

फिल्म में सुचित्रा सेन ने आरती के किरदार का ज़रूरी ग्रेस और दृढ़ता इस तरह प्रदर्शित की कि ये फिल्म सुचित्रा सेन के सबसे बेहतरीन फिल्मो से एक हो गयी. एक बेहद महत्वाकांक्षी औरत जो रिश्तो को दरकिनार करके अपने राजनीतिक जीवन को महत्त्व देती है. अपने पति 'संजीव कुमार ' को छोड़ राजनीती में इतना आगे बढ़ जाती है जहाँ से वापस लौटना उसके नए क़द के अनुरूप नहीं होता. कामयाबी के शिखर और सालो बाद पति के होटल में मुलाक़ात होती भी है , लेकिन राजनीति की आंधी दोबारा उगते मोहब्बत के चिराग बुझा देती है. पति की भूमिका में संजीव कुमार हमेशा के तरह बेहद संजीदगी से अपने प्यार को खोने के किरदार में ढल जाते है।  गुलज़ार ने अपनी ख़ास फ़्लैश बैक शैली और बिम्ब और मेटाफर के माध्यम से कहने के पोएटिक ट्रीटमेंट से 'आंधी ' को पोलिटिकल ओवर टोन वाली सबसे बेहतरीन फिल्म बना दिया. यहाँ तक गानो में भी जिस तरह अलगाव, ईगो, मरासिम के दरकने को प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाया,  वो बेहद खूबसूरत है. 'तेरे बिना ज़िन्दगी से ' गाने में पृष्ठभूमि में खँडहर हो गयी इमारते , टूटे हुए दरकते मरासिम की अनकही बात कहती नज़र आती है. 

 

 


 

बेहतरीन निर्देशन , बेहद रूहानी गाने, विश्वशनीय अभिनय और इंदिरा के होने न होने के रोमांच ने फिल्म को बायोग्राफी न होते हुए भी अलग दर्ज़ा दे दिया.अपने कलेवर में नए रंग, नए फलक गढ़ते , गुलज़ार मौसम और खुशबु में रिश्ते की नयी बारीकियां पकड़ लेते हैं. पतली परत में चढ़े हुए रिश्तो को इतनी बारीकी से उधेड़ा  की रेशा रेशा , हमारे सामने नुमाया हो जाता है.

अपने बेहद संजीदा लहज़े और रुख में रंगो का नया कैनवास जोड़ते गुलज़ार , अब 'अंगूर; की तरह मुड़ते हैं. इस फिल्म ने हास्य के धरातल को इतना खूबसूरत, सहज , और विश्वसनीय बनाया ,जो शायद ही किसी हास्य फिल्म को वो दर्जा मिल पाया. मूलतः 'कॉमेडी ऑफ़ एरर्स  ' पर आधारित ये फिल्म दो जुड़वाँ की अदला बदली और उससे उपजे स्वाभाविक हास्य का लचीला ताना बाना पेश करती है. संजीव कुमार और देवन वर्मा ने अपने बेहद स्वाभाविक अभिनय से इस फिल्म को नाटकीयता से दूर रखते हुए , मुस्कराहट को हंसी में तब्दील किया. सक्षम अभिनेता को बेहद सुलझा हुआ निर्देशक मिल जाए, तो परिणीति , अंगूर जैसी ही होती है. 

 

 

 


विवाहेतर सम्बन्धो के आस पास खींची गयी कहानी 'लिबास' दुनिया तक तो नहीं पहुंची लेकिन गुलज़ार ने संबंधो की महीन बुनावट पर फिर एक बार अपनी समझ की मुहर लगा दी.  राजनैतिक हालत कभी भी गुलज़ार की नज़रो से ओझल नहीं रहे. माचिस और हु-तू-तू इसका बेहद सटीक उदहारण है. माचिस में आंतकवाद, पुलिस की भूमिका  गिर्द रची कहानी , पहाड़ी नदी की तरह साफ़ और खूबसूरत दिखती है. उसमे गाने की भूमिका मनोरंजन से ज़्यादा कहानी का ज़रूरी हिस्सा हो जाती है.

 

लगभग , इन सारी  कहानी के नरेटिव की खासियत इसका नान लीनियर होना है. यानी कहानी की स्टोरी टेलिंग में फ़्लैश बैक का बेहद ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है जो कथ्य को उलझाता  नहीं बल्कि ,  कहानी की रोचकता को बनाये रखते नए मोड़ देता है.

इज़ाज़त , नमकीन कुछ और फिल्म्स है जिसमे गुलज़ार को धड़कते हुए आप सुन सकते है. इनके किसी भी फ्रेम को जब भी हम देखते है, ये साफ़ पता चल जाता है की कैमरे के पीछे सफ़ेद लिबास में एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति, हर किरदार में ज़रूरी बारीकियां डाल  रहा है.

फिल्म  और गीत  से अलग ,छोटे परदे पर भी गुलज़ार ,अपनी सुलझी हुई रचनात्मकता के साथ दिखाई देते रहे हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब , गुलज़ार का बनाया एक ऐसा शाहकार है जो ग़ालिब की चरित्र , शराबनोशी, उम्दा ग़ज़ल अदाएगी , रिश्तो की महीन  इबारत और सेंस ऑफ़ ह्यूमर का बेहद खूबसूरत मिश्रण पेश करती है

 


 

 

कवि  सम्मलेन या मुशायरे में कविता पाठ हो, किताबो में अपना देखा हुआ सच या कल्पना का खूबसूरत जामा हो, फिल्म्स के ज़रिये अपनी कहानी कहने की खूबसूरत अदाएगी हो, गीत में प्रेम या विरह की सच्ची तस्वीर हो , गुलज़ार हर विधा में अपने ख़ास लहज़े में दिखाई देते है.

                                                

 भारत के जटिल समाज विन्यास मे सभी की भावनाओ का इतना खूबसूरत चितेरा शायद ही सिनेमा   को दूसरा मिले. अपने हर लफ्ज़ में ज़िन्दगी की बारीकियां भरने वाले शब्द संत गुलज़ार साब  रचनात्मकता के शिखर  पर अपनी विविधता को इसी तरह बिखेरते रहे ,यही कामना है

गुलज़ार साब पर मेरी नज़्म, मेरी आवाज़ में सुनने के लिए नीचे लिंक पे क्लिक करें

https://www.youtube.com/watch?v=jZ2E0ma4eAc

©अविनाश त्रिपाठी

 

 

 

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