न्यू वेव सिनेमा का नया चेहरा
अनुराग कश्यप
सत्तर का दशक अपनी राजनीतिक हलचल , क्रांति के नए मसीहा जे पी , अभिनय में अमिताभ के उदय की वजह से अलग से पहचाना जा रहा था , इसी दशक में पूरब के एक शहर की निचली परत धीरे धीरे सुलग रही थी. दो बाहुबलियों की अदावत ने शहर के मिजाज़ पर अंगारा रख छोड़ा था.
इसी शहर में १९७२ में १० सितम्बर को जब बारिश भी आग बुझाने में नाकाम होकर इस्तीफ़ा दे देती है, एक बच्चा भारतीय सिनेमा के चिर परिचित चेहरे को ख्वाब सरीखी ख़ूबसूरती से निकाल कर खुरदुरे यथार्थ की मौलिक सुंदरता के साथ पेश करने की ज़ुर्रत लिए पैदा होता है। ये शहर गोरखपुर था, इलाके को अपनी अदावत से सुर्ख कर रहे बाहुबली हरिशंकर तिवारी और वीरेंदर शाही थे और भारतीय सिनेमा को उसके नए चेहरे से बार बार मुखातिब कराने वाले इस बच्चे का नाम अनुराग कश्यप था.
गोरखपुर की विचार और प्रहार दोनों में उर्वर ज़मीन का स्वाद अनुराग की ज़बान पर चढ़ने लगा लेकिन जल्दी ही वो ग्वालियर में अपनी बुनियाद मजबूत करते हुए दिल्ली के दिल के साथ धड़कने लगे. युवा होते अनुराग में वैज्ञानिक बनने का एक छोटा सा ख्वाब उग ही रहा था कि एक फिल्म फेस्टिवल ने अनुराग की ज़िन्दगी के मायने बदल दिए. डी सिका की 'बाइसिकल थीफ ' अनुराग की ज़ेहन में रेंगने लगी.
मुंबई बम ब्लास्ट का गुबार अभी फ़िज़ा में तैर ही रहा था कि अनुराग १९९३ में समंदर के शहर 'मुंबई' में अपने अंदर की आग बुझाने पहुंच गए. मुंबई के बदले मिजाज़ और अपनी ख्वाहिश के बीच अपने लिए छोटे छोटे रास्ते तलाश करते अनुराग को कई बार आसमान की चादर ओढ़ ,अपने ख्वाब को तकिया बनाकर सोना पड़ा। हुनर और जूनून को आखिर तब उड़ान मिली जब राम गोपाल वर्मा' ने अनुराग की लिखी बंद फिल्म से उनकी कामयाबी का नया सफर खोल दिया. १९९८' में आयी 'सत्या' अनुराग की कलम की ज़ोरदार बानगी थी।
शायद गोरखपुर, फिर ग्वालियर के आस पास के बीहड़ का कच्चा जरायम अनुराग की ज़बान से पकना शरू हो रहा था. क्राइम , सस्पेंस ,थ्रिलर जैसे डार्क विषय में अनुराग की सहजता में उनकी तरबीयत की ज़मीन का भी हिस्सा था. अपनी मजबूत ज़मीन पर चलते हुए अनुराग ने 'कौन' , शूल' जैसी फिल्मे लिखी और फिर एक दिन खुद की कहानी अपने लहजे में सुनाने का तय कर लिया. 'अमेरिकन नोयर जॉनर ' से मुतासिर अनुराग ने अपनी पहली फिल्म भी अपराध, और उसके मनोविज्ञान के आस पास रची , दुर्भाग्य से ये फिल्म 'पांच' कभी सेंसर कभी दूसरी वजह से दुनिया के बीच नहीं पहुंच पायी. कई फिल्मो के किरदार की ज़बान से अनुराग के लफ्ज़ निकल रहे थे लेकिन अनुराग अपनी लहजे की कहानी सुनना चाहते थे.
आखिर अनुराग ने उसी गुबार को चुना जो १९९३ में मुंबई आने पर मुंबई के आसमान पर स्याह बादल की तरह छाया था. ब्लैक फ्राइडे ' न सिर्फ मुंबई ब्लास्ट का बेहतरीन दस्तावेज था बल्कि सच को इस तरह कुरेद दिया कि कोर्ट भी न्याय आने तक फिल्म पर रोक लगाने पर मजबूर हो गया.
अनुराग ने अपनी मुख्तलिफ किस्सागोई में जब देवदास सुनाया तो नए पसमंज़र में ये कहानी 'देव डी' बन गयी. देवदास के किरदार के एस्सेंस को ज़िंदा रखते अनुराग ने नए ज़माने के देव की ज़बान से प्रेम, ईगो ,अपराधबोध ,लस्ट हर अहसास को खुरदुरी सच्चाई के साथ पेश किया. इसी साल अपनी परवाज़ में और हवा भरते अनुराग ने युवा राजनीति, सत्ता लोलुपता और ताक़तवर लोगो के दोहरे चरित्र को राजस्थान के रेतीली ज़मीनी में ऐसा गढ़ा की हवा चलते ही रेत, ‘गुलाल’ में बदल गयी. अपने बिलकुल अलग नज़रिये और क्राफ्ट से अनुराग यश चोपड़ा , करण ज़ोहर के सिनेमा से अलग एक समानांतर सोच में बदल रहे थे जो प्रेम के जादुई अहसास से हटकर हिंसा, यौन मनोविज्ञान के विभिन्न सतह को टटोल रहा होता है.
कई फिल्मो के पड़ाव से होकर अनुराग अब 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर ' के उस दुनिया में पहुंचते हैं जहाँ ६० साल तक दुश्मनी, बदला, सत्ता, ताक़त और धोखा का ऐसा ताना बाना बुना गया था कि हर धागे का अपना अलग रुतबा और मिजाज़ था. मनोज बाजपाई को दुबारा स्थापित करने में और हिंदुस्तानी सिनेमा को नवाज़ुद्दीन देने में गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' ने अहम् किरदार निभाया.
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अपने और कई अभिनेताओं के व्यक्तिगत अनुभव को फिल्म में उसी सच्चाई से पिरोते अनुराग इस फिल्म के बाद भारतीय सिनेमा के 'न्यू वेव' आंदोलन के सबसे प्रखर चेहरे के रूप में दर्ज़ हो गए. इसके बाद भी अनुराग ने कई फिल्म निर्माण कर पथरीली ज़मीन वाले ऐसे सिनेमा संसार का उद्घोष किया जो अपने अधूरे ख्वाब जीने नहीं बल्कि सिनेमा को गहरी आँखों से घूर कर उसकी हर परत खोल देता है।
Avinash Tripathi
Very beautifully written blog.
ReplyDeleteThanks a lot for your kind words
DeleteNicee
ReplyDeleteThanks a lot anshika ji
DeleteVery nice sir 🙏
ReplyDeleteThanks a lot
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